Sunday, July 24, 2016

                                                           
                मन के गलियारे    
               



                    काले-सफ़ेद धब्बों के अजीब से चकत्तों से भरी, बदसूरत और  मरियल सी वो श्वानी पिछले साल ही पैदा हुई थी, शायद कॉलेज परिसर में ही कहीं. जब से हम लोगों ने देखा तब से अनाथ ही दिखी क्योंकि माँ कभी साथ दिखी नहीं और बाप का ठिकाना होता नहीं.
            तो वो सबके टुकड़े और लात-डंडे खा के बड़ी होती रही, लेकिन कॉलेज परिसर में डटी रही. कभी हम कुछ दे देते तो कभी कोई छात्र बिस्कुट डाल देता, कभी-कभी कोई तंग भी कर लेता. एक बार तो किसी नटखट छात्र ने उसे गिफ्ट पैक की तरह फीते से भी लपेट दिया, बेचारी ऊन के गोले की तरह लुढकती हुई किंकियाई तो किसी ने खोला. और एक बार गली के कुत्तों के मुँह पड़ कर बुरी तरह से घायल भी हो गई लेकिन कॉलेज के दयालू चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की दवा और सम्भाल से मरती हुई बची और बड़ी हो गई.
          अब कॉलेज में रहना उसकी ही नहीं हमारी भी मजबूरी थी तो हमे भी सह गई, यद्यपि उसका बाहरी रूप-रंग इतना ज्यादा अजब-गजब था कि उसे देखते ही कोई पसंद कर ले ये नामुमकिन था...
         ...कानों के सिरे पर और मूंछों के स्थान पर बेहद लम्बे दस बीस बाल और खूब लम्बूतरी एकसार काया के कारण वो कहीं से भी स्त्रियोचित नहीं लगती थी, न कोई मादाओं जैसी अदा या हाव-भाव, और ऊपर से उसकी नरोचित बदमाशियां... शायद यही कारण रहा कि शुरू के छह महीने तक तो मैं ये भी नहीं जानती थी कि वो मेरी हमजात है, मालूम तब पड़ा जब वो मासिक धर्म से हुई. और उसके बाद उसका जीवन पहले जैसा नहीं रहा.
                 अब वो मादा मांस के शिकारियों से छुप कर स्टाफ रूम में बैठ जाती, हमारी डाँट खा कर भी दरवाजे के पीछे पड़ी रहती. लेकिन इस दुनिया में मादा जात किस देश-काल-योनि में इतनी सुरक्षित हुई है जो वो बचती... नहीं बच पाई.
         फिर उसकी आँखों से कम उम्र की दीठ चंचलता और देह से हिरनी सी चपलता दोनों खो गई, थके चेहरे पर एक कातर विनम्रता आ गई. उसकी छड़ी जैसी कृशकाय देह पर उसका बड़ा सा, जमीन को छूता हुआ पेट उससे बमुश्किल सम्भलता था जिसे घसीटते हुए भी वो स्टाफ रूम के आसपास ही मंडराती रहती थी. शायद ये एक मादा का दूसरी मादाओं के प्रति विश्वास रहा हो जो तमाम झिडकियों के बाद भी उसे वहीं रहने का भरोसा देता था और हम महिलाएँ भी खीज-कुढ़ कर भी उसे खाना डालती थीं कि वो गर्भ से है.
         खैर.. घीसते-घसीटते समय तो कटना ही था. तो जाड़ों में उस नाबालिग सी कुतिया के पाँच टाबर हुए. चपरासी के घर हुई जचगी की सम्भाल और सेवा से सारे जिन्दा बच गए, और बीसेक दिनों बाद लुढकते-पुढकते कॉलेज परिसर में चिंचियाते फिरने लगे. चपरासी ने भी उसे विदा कर दिया था कि पाँच बच्चों वाली भुक्खड़ जच्चा को वो गरीब दिन कितने पालता?
          वो कॉलेज में आ जाती तो स्टाफ से उसे काफी कुछ मिल भी जाता लेकिन उसका पेट तो मानो कुआं हो गया था, ‘जितना खाए उतनी भूख’ वाली कहावत उस पर सौ प्रतिशत सही बैठती. उस पर श्वान-शावक भी उसे हर क्षण झिंझोड़ते रहते थे.
         और अब हालत ये कि वो नवप्रसूता, पह्लोठी की माँ अपने अपने सूजे हुए थन लिए उन पिल्लों से दूरी बना के चलती क्योंकि माँ को देखते ही वो दूध के लिए चिपकते. बच्चो को अभी सीढियां चढना नहीं आता तो वो नीचे मैदान में रहते और उकताई हुई माँ ऊपर बरामदे में, अगर गलती से भी वो बच्चों के पास चली जाती तो सारे के सारे पिल्लै चौपाया से दोपाया बन के उसके खाली थनों से लटक जाते, जिन्हें बेदर्दी से झटकार के चलने के अलावा उस गरीब के पास कोई रास्ता ही नहीं होता.
         एक दिन किसी रहमदिल विद्यार्थी ने पिल्लों को बरामदे में बैठा दिया तो वो छत पर जा छुपी, जिसे बुरा लगे वो कहता रहे उसे बेरहम और बुरी माँ, वो जरा भी चिंता नहीं करती. खाली पेट और उन पाँच पेटुओं की अंतहीन सुरसा सी भूख के आगे उसकी गरीब, भूखों भरी ममता छोटी पड़ जाती.
        लेकिन ऐसा भी नहीं कि वो एकदम ही बुरी माँ थी, वो भी माँ थी, मजबूर माँ.
        अभी उस दिन  की ही बात है जब उसके बच्चे आपस में ही उलझ के उलट-पलट हो गए थे और बुरी तरह रोने लगे थे. उनकी आवाज सुनते ही बरामदे में निस्पृह पड़ी माँ के पैरों को पंख लग गए थे मानो, वो उछल के भागी, बरामदे के ऊपर से ही मामला समझा ओर सब ठीक-ठाक देख के फिर अपनी जगह आ के सो गई. मैंने डांटा- “अरी बेशर्म, तेरे बच्चे रो रहे हैं, और तू सो रही है. जरा ठीक से तो देख कर आ, जरा भी ममता नहीं लगती, कैसी माँ है तू?” जवाब में उसने मुझे जिस कातर दृष्टि से देखा वो सब कह गया. वो मूक आवाज कह रही थी ‘मेडम, मैं भी माँ हूँ, लेकिन दूध कहाँ से लाऊं.’
       
             लेकिन वो वाकया जिसने मुझे झकझोर दिया और प्राणी मनोविज्ञान की अनसुलझी गुत्थियों में उलझा दिया वो ममता और भूख के द्वंद्व से बहुत अलग और विचित्र था...
      तम्बाखू पीले रंग का वो पिल्ला जो अक्सर माँ से अलग ही दिखाई देता था, उस दोपहर भी अकेला ही घूम रहा था, बाकी चार श्वान-शिशु धूप में सो रहे थे. अचानक उसे माँ दिखी और वो उसके के पास आने के लिए मचल गया. लेकिन माँ इस सब से निस्पृह बरामदे में पसरी रही. अब वो सीढ़ियों के नीचे उचकता किंकियाए जाए, माँ को पुकारे जाए, पर माँ सुन कर भी अनसुनी करती पड़ी रही, वो जोर-शोर से रोने लगा तो भी नहीं पिघली. उस शिशु का रोना देख कर मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने एक विद्यार्थी से कह के उसे बरामदे में रखवा लिया.
      अजनबी गुलिवर के हाथों में पड़ जाने की दहशत से उस लिलिपुट का नन्हा सा गात पीले पात की तरह थरथरा गया. कुछ देर बाद, जब वो उस हादसे से उबरा और माँ भी दिख गई तो डुगडुग करते हुए माँ की और लपका और कूँ-कूँ करता आश्वस्त भाव से उसकी देह में धँस गया. लेकिन वो उसी अरुचि से पड़ी रही, देह को छुपाए, कि न कहीं वो दूध पी ले. शिशु भी शायद समझता है, उसने कतई दूध की माँग नही की और चुपचाप माँ से सट कर सो गया. पर माँ से उसके पास क्षण भर से ज्यादा ठहरा ही नहीं गया, वो उठी और सीढियां उतर कर नीचे मैदान में जा लेटी, और कुछ ही देर में शेष चार श्वान-शिशु माँ के थनों से चिपके दूध पी रहे थे. मैंने पास से गुजरते चपरासी से कह कर उस तम्बाखू वर्णी पिल्ले को भी नीचे छुडवा दिया लेकिन उस पिल्ले के पास आते ही वो माँ वहां से भाग गई. मैं दंग रह गई.
         कैसी माँ है ये, कैसी ममता है इसकी? इंसान तो अपने बच्चों में अंतर करते देखे सुने हैं, पर पशु भी इतना पक्षपात कर सकते हैं ये मैं पहली बार देख रही थी। क्या कारण हो सकता है? मैं समझ नहीं पा रही थी कि मेरी सहकर्मी डॉ शोभा भाटिया ने कहा– “अरे लक्ष्मी! याद करो वो पीला जबरा कुत्ता.”
         और अचानक मेरी स्मृति में वो दिन कौंध गए जब ये कम उम्र की दुबली-पतली सी पिल्ली इस-उस कमरे-कोने में छुपती रहती थी और तम्बाखू पीले रंग और बड़े जबड़ों वाला एक जबरा कुत्ता हर क्षण इसके पीछे पड़ा रहता था... और इन पाँचों में एक यही है जो सौ प्रतिशत पीला और बड़े जबड़े वाला है। अब मुझे माज़रा समझ आ रहा है....
        दूसरे पिल्ले इसे अप्रिय नहीं है, ये बस उनसे बचती है कि वो हर समय इसके रीते, भूख से कुलबुलाते स्तनों से चिपके रहना चाहते हैं, लेकिन ये पिल्ला उसे असहनीय होने की सीमा तक अप्रिय है कि सम्भवतः ये उसे उस बलात् सहवास के बलात्कारी साथी की याद दिलाता है. मैं सिहर गई, कैसा जीवन है और कैसा मन है. मनुष्य हो या दूसरी योनि का प्राणी, सबकी अपनी मनोव्यथा है और उस मनोव्यथा के कारण भी हैं.
        मन के आखिरी तल में बैठी कोई फाँस कैसे ममता के रेशम में से भी चुभती रहती है ये कोई नही जानता. कोई नहीं जानता कि केवल तीन रंगों को पहचानने वाला, एक लघु मस्तिष्क धारी जानवर कैसे अपनी अरुचि और वितृष्णा को स्मृति में रखता है और उस से संचालित होता है. और ये भी कोई नहीं समझ सकता जो इस घटना के अगले रोज मैंने देखा.
      ... वही महाविद्यालय परिसर, वही सतृष्ण पिल्ला और वही वितृष्ण माँ. महाविद्यालय का अस्थायी सफाईकर्मी उसे धरती पर गिराए दबोचे बैठा है, वो विवश हो कर जमीन पर लेटी है और परम आनन्दित तम्बाखू वर्णी पिल्ला माँ से चिपका उसका दूध पी रहा है "गोपी! ये क्या कर रहे हो, छोडो उसे." मैंने चिड़चिड़ा कर सफाईदार को धमकाया.
           "अजी मेडम जी, दूध पिला रहा हूँ इस टाबर को। अपनी मर्ज़ी से ये चुड़ैल नहीं पिलाती न इसको. ऐसे तो भूखों मर जाएगा ये बेचारा. इसको अभी बोटल से दूध पीना भी तो नहीं आता, वर्ना मैं ऊपर के दूध से पाल लेता. अब इसको ऐसे दूध पिलाने के अलावा कोई उपाय नहीं." और सारी असुविधाजनक स्थिति और अरुचिकर दृष्य के बावजूद मैं उस शराबी की संवेदनशील फूहड़ता का विरोध नहीं कर पाई.
          और अब जबकि एक एक कर उसके सारे शिशु काल के गाल में समा गए, वो श्वानी अपनी एंटीना जैसी मूंछों पर दार्शनिक तटस्थता ओढ़े महाविद्यालय की सीढियों पर पड़ी हांफती रहती है.

                  ...अगले जाड़ों में शायद फिर से ब्याए.

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर कहानी.....यह मैंने समाचार पात्र में भी पढ़ी थी .

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुन्दर

    ReplyDelete