Tuesday, March 17, 2015

परित्यक्त


“माँ....मुझे कुछ पैसे चाहिये.” सारांश की आवाज पौष माह का पाला मारी सी है, ठंडी से जकड़ी और ठिठुरती सी.
“फिर से? अभी महीना पहले ही तो तुम्हारे अकाउंट में दस हजार ट्रांसफर ....” लेकिन लेपटॉप पर झुकी अंजलि आगे बोलने के पहले ही अटक गई, कि उसके भीतर बैठी माँ ने सारांश की आवाज को पकड लिया था. ‘हाय राम, ये मेरा लाल है, मेरा बिगड़ा शहजादा आज ऐसे कैसे स्याणा बच्चा हो गया.. इम्पॉसिबल, जरूर कहीं कुछ गड़बड़ कर के आये हैं बेटे जी,’ अंजलि के  भीतर बैठी नरम माँ अब भुक्तभोगी, चतुर माँ में बदलने लगी. ‘जरूर या तो इसने कहीं चूना लगाया है या लगाने के मूड है, वरना सारांश और ये तेवर? लेकिन इसका मुँह कैसा छोटा सा निकल रहा है, कहीं कुछ  बड़ी गड़बड़ तो नहीं कर आया.’ सारांश का रंग फीका और रूप उदास है, वह अनिश्चित सा रूम के लगभग बाहर खड़ा है, विदाउट एनी एटीट्यूड. बिना किसी हायतौबा-जल्दबाजी के. अंजलि पिघलने लगी फिर भी अनुभव से सीखी माठी माँ बने रह के बोली “क्या हुआ, सब ठीक तो है. कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं कर आये फिर से.”
सारांश जो न कर आये कम है. पिछले दिनों किसी दोस्त से कोई अजीब सी शर्त में पांच हज़ार रुपये हार के आया है. गाड़ी-वाडी ठोकना, इलेक्ट्रोनिक गजेट्स, मोबाइल, परफ्यूम और कपड़े खरीदना तो सारांश के लिए हँसी-मजाक है, अभी इसकी बुआ लंदन से आई तो इसने कितना अनाप-शनाप खर्च किया और कितना सारा बेकार का. बुआ के लिए फ्रेन्ड्स पार्टी दी, उसके लिए ड्रेस, शूज, घड़ी, डियो, गजेट्स, एसेसरीज, पिक्चर-पार्टी तो ठीक था लेकिन जो विराटकाय टेडीज लाया, अब घर के स्टोर की शान बढ़ा रहे है, उन्हें वो अपने साथ लंदन तो ले जाने से रही थी. पर सारांश को कहें भी तो क्या कहे, अभी उम्र ही ऐसी है उसकी, ना तो समझदार में ना नादान में. वैसे भी आजकल के बच्चों को कुछ कहते हुए भी डर लगता है. नाक पे मक्खी तो बैठने नहीं देता, कुछ कहो तो मुँह फुला के बात करना बंद कर देगा, ज्यादा कहो तो ‘इट्स माय लाइफ, डोंट इंटरफेयर. प्लीज लेट मी हेंडल इट’ कह के पैर पटकता घर से चला जायेगा, अपने कमरे के दरवाजे पर ‘नो एंट्री‘ चिपका देगा. फिर करते रहो खुशामद, मनाते रहो खाना खाने को कि वो दोनों टाइम बाहर का जंक कचरा खाना बंद करे.
“नो मॉम, यू प्लीज डोंट वरी, सब ठीक है, मुझे जरूरी काम के लिए चाहिए प्लीज.” सारांश की आवाज में जाने क्या सा है, अंजली के सारे हथियार धराशायी हो गये. “ओके, कितने चाहिए, दस ट्रांसफर कर ...”
“पांच सौ” अंजलि की बात पूरी होने के पहले ही सारांश का उतावला सा जवाब आया, अटपटी सी आवाज़ में. कच्ची उम्र की प्रोढ़ आवाज.
“ क्यूँ..,मेरा मतलब बस, इतने पैसे भी नहीं बचे तुम्हारे पास?” अंजलि अपनी ही हैरानी से परेशान है, ये हो क्या रहा है, सारांश ठीक तो है ना, पाँच सौ रुपये के लिए सारांश ऐसे...?
“यस मॉम, एम ओके. एंड माँ, मैंने कहीं भी मनी वेस्ट नहीं किया, बट काफी दिन भी हो गये न माँ.” अरे हाँ, सारांश ने सचमुच बहुत समय से पैसे नहीं माँगे. “हाँ तो इन बिटवीन डेडी से कितने रुपये लिए, डैडी को तो तुम सेकिंड्स में बनाते हो.” कविता खूब जानती है सारांश के लिए ऋषि से पैसे लेना साँस लेने जितना सीधा काम है, और जानते-बुझते भी ऋषि को सारांश से बुद्धू बनने में जो सुख मिलता है सारांश खूब जानता है और खूब भुनाता भी है. “नहीं माँ, स्वेयर, मैंने डैड से कुछ भी नहीं लिया. आप कन्फर्म कर लो.” सारांश की आवाज़ पनीली सी होने लगी.
“ऋषि, तुम ने सारांश को कुछ कहा क्या इन दिनों में?” अंजली दोपहर से सारांश की आवाज को ले कर कुढ़े जा रही है. “किस बारे में, वैसे आपके सुपुत्र जी को कुछ कह के अपनी खैर खराब नहीं करनी मुझे.” ऋषि ने अंजली की ओर करवट बदली. “फिर लड़ मरे तुम दोनों, अब किस बात पे मूड खराब कर दिया साहब का ?”
“नहीं, वो आजकल कुछ अजीब सा बिहेव कर रहा था तो मैंने पूछा.”
“बच्चे हैं, कुछ हो गया होगा, तुम यार इतनी चिंता मत करा करो, जानती हो न ज्यादा केअरिंग से उसको इरीटेशन होता है.” ऋषि ठीक कहते हैं सारांश को ज्यादा प्यार-दुलार से भी इरीटेशन होता है. लेकिन उसका ये बिहेव...
“ गुड मोर्निंग मॉम.” सुबह छः बजे कमरे के बाहर निकलती अंजली के लिए ये आवाज़ दुनिया  के सारे अजूबों से बड़ा अजूबा है, ये दोपहर का सूरज आज सवेरे-सवेरे कैसे निकल आया. सारांश जी तो सोते ही सुबह के आसपास हैं और यूनिवर्सिटी जाने के आधा घंटे पहले जागते हैं वो भी नगाड़े पीटने पर. इस समय जागने का तो सवाल ही नहीं, वो भी बेवजह.. “गुड मोर्निंग डार्लिंग, क्या बात है आज मेरा बेटा बहुत जल्दी उठ गया, तबियत तो ठीक है, रात कुछ अच्छा-बुरा तो नहीं खा लिया था?” अंजलि ने सारांश को मोर्निंग किस दिया.
“मैं ठीक हूँ मॉम, आज मुझे नैतिक से मिलने सेक्टर सात जाना है, देर होने पर वो कालेज के लिए निकल जायेगा.”
“इतनी जल्दी? ठहरो, मैं मिल्क-कॉर्नफ्लेक्स लाती हूँ.” “नहीं मम्मा, रहने दो मैं आपके साथ चाय ही पी लूँगा.” सारांश ने किचन में जाती अंजलि को रोकते हुए कहा. “तू चाय पिएगा?” अंजली फिर विस्मित है. “तो क्या बुराई है, अब मैं बड़ा हो गया, सब कुछ खाने-पीने की आदत होनी चाहिए आप ही तो कहतीं है.” नहीं ये वो सारांश नहीं है. “नोट्स लेने जा रहे हो या कोई बुक?” चाय पीती अंजलि ने बात चलाई, “नहीं मम्मा, मुझे उस के साथ किसी के घर जाना है. मम्मा ब्लेसिंग्ज दो कि काम बन जाये.” सारांश ने उठ कर अंजली के घुटनों को हाथ लगाया और बिना रुके घर के बाहर निकल गया. पीछे रह गई अंजली के घुटने जैसे एक पल ही में बुढा गये, वो खाली प्याले वहीं रख के धम से बैठ गई. कब ऋषि आया, कब मैड चाय बना के ले आई, उसे कुछ ध्यान ही नहीं. “क्या हुआ अंजू, क्या सोच रही हो ऐसे?” पर अंजली ने कोई जवाब नहीं दिया बस चुप बैठी न्यूज-पेपर को घूरती रही. ‘क्या हो गया सारांश को, किस काम से गया है वो, ऐसा कौन सा काम कर रहा है. और ये पैर छूना, उसे तो बार-त्योंहार भी आँख में अंगुली डाल के बताना पड़ता है तो वो पैर छूता है और आज....’
“बन गया तुम्हारा काम?” सारांश कॉलेज से लौट के आ गया है और अंजलि बेसब्री से उसका नाश्ता खत्म होने की प्रतीक्षा में  है, खत्म होने के बाद उससे एक पल भी नहीं ठहरा गया. “यस मॉम, बन गया.” सारांश की नॉन-स्टाप वाचालता ठहराव में बदल रही है ये तो अंजली ने पहले ही नोटिस कर लिया था, अब वो ये भी नोटिस कर रही है कि खाने के मामले में महाफसी और डिमांडिंग सारांश अब जो भी सामने आ जाये चुपचाप खा लेता है. “बता ना क्या काम था?” अंजली से रहा नहीं जा रहा. “मॉम मुझे एक ट्यूशन मिल गई है, टेंथ के स्टूडेंट को जर्मन और मेथ्स पढ़ाने के लिए, कालेज से आते हुए ही पढ़ा आया करूँगा. अब मुझे लेट हो जाया करेगा, आप चिंता मत करना.” “क्या ! तू ट्यूशन पढ़ायेगा? अपनी पढाई तो पूरी कर लिया कर. याद भी है लास्ट बार बुक कब छुई थी?” अंजली को सारांश के बचपने पे हंसी आ गई. उसे सारा खेल समझ आ गया, ये जरूर मीता द्वारा प्रसारित लन्दन-वाणी के ज्ञान का प्रताप है, वहां के सेल्फमेड बच्चों की यश गाथा श्रवण से जागा जोश है.
“प्लीज माँ, आय’म सीरियस, प्लीज.” सारांश की आवाज में क्या है अंजली नहीं पकड़ सकी, वो अपनी ही रौ में बोले जा रही है. “और जायेगा कितने दिन, दो-तीन दिन में बोर होके छोड़ देगा. कोई जरूरत नहीं, चुपचाप फोन कर के मना कर देना.” “नो...प्लीज मुझे ये करने दो, मैं भी कुछ करना चाहता हूँ, बड़ा हो गया हूँ अब मैं, कब तक आप लोगों पर यूँ ही बोझ बनता रहूँगा.” सारांश की ऊँची आवाज़ पर चौंक गई अंजली ने देखा सारांश का मुँह तमतमा गया है और उस के आँसू आँखों की सरहद में रुकने को राजी नहीं. “कब तक आप मुझ पर ये काईंड ऑब्लिगेशन्स करते रहेंगे, मुझे नहीं चाहिए ये सब मर्सी मैं अपना खर्च खुद उठाना चाहता हूँ, आप लोगों ने अब तक मेरे लिए जो किया वो बहुत ज्यादा है, थेंकफुल हूँ मैं आप लोगों का ...” सारांश के अधपके गले से निकलती आवाज कितनी भयानक है, अंजली का कलेजा काँप गया, “सारांश...इनफ इज इनफ, कुछ होश भी है क्या बक रहा है तू. कहाँ से सीख ली ये ड्रामेबाजी, जो चाहिए सीधे-सीधे बता, ये इमोशनल ब्लेकमेल नहीं चलेगी.” अंजली कोशिश कर रही है कि उसकी आवाज नाराज  लगे लेकिन वो जानती है कि उसकी आवाज में कोई दम नहीं, वो बोदी है और उसके हाथों की तरह काँप रही है.
“कुछ नहीं, कुछ नहीं चाहिए अब मुझे आप लोगों से, लेट मी मेक इट मायसेल्फ प्लीज.”
“हाँ तो करो ना, किसने मना किया. अभी तो तुम कॉलेज में आये ही हो, पहले पढ़ाई खत्म कर लो फिर डैड का बिजनेस तुम्हे ही संभालना है, वैसे भी बूढ़े हो रहे है हम अब. हम तो खुद चाहते है कि एजुकेशन कम्प्लीट करके तुम अपने बिजनेस में डैड की हेल्प करो तो वो भी थोडा फ्री हों.” अंजली की नजर सारांश की खाली कलाई पर है, इसकी ‘स्वाच’ रिस्ट-वॉच कहाँ गई, “और घड़ी कहाँ है तुम्हारी?
“नहीं, नहीं लेना मुझे डैडी की हेल्प, बहुत जी लिया मैं आपकी एड पर. अब मैं अपने दम पर कुछ करना चाहता हूँ... मैंने अमेरिका में स्कॉलरशिप के लिए एप्लाय भी कर दिया है कल...आपसे फार्म के पैसे भी इसीलिए लिए थे. और चिंता मत करिये, घड़ी न खोई है न किसी को दी है, वो मैंने संभाल कर रख दी है. मुझे जरूरत नहीं आप चाहें तो वापस ले सकते हैं.” सारांश बिना किसी लाग-लपेट के कहने की कोशिश कर रहा है, चाहे उसकी आवाज काँप रही है.
“अच्छा, बहुत बड़े हो गए हो तुम. माँ-बाप से लेने में शर्म आने लगी है अब तुम्हे, फिर ये बताओ क्या-क्या छोड़ोगे....खाना, रहना, पढ़ाई, ये शान-शौकत, ये घोड़े-गाड़ी जब तक हैं न तब तक ही बुरे लगते हैं, जिस दिन नहीं रहते उस दिन कीमत मालूम होती है बेटा.” अंजली बौखला कर डाइनिंग टेबल को उँगली से खोद देना चाहती है, ये गुस्सा है, दुःख है या भय वो खुद नहीं जानती. उसका रोना पेट की गहराइयों से उमड़ा पड़ रहा है और वह ऐसी बातें कह रही है जो उसने कभी नहीं की, सारांश के साथ तो कतई नहीं.
“मुझे महंगा मोबाइल और गाड़ी भी नहीं चाहिए माँ, मैंने, मेट्रो से जाना शुरू कर दिया है, और जल्द ही मैं अपना खाने-पीने का इंतज़ाम कर लूँगा. तब तक .....प्लीज मॉम “
इसके आगे अंजली कुछ नहीं सुन पाई, जब उसे जब होश आया तब तक रात उतर आई थी. ऋषि और सारांश दोनों चिंतातुर से बेड के पास बैठे हैं. “सॉरी माँ.” सारांश उसके सीने से लगा पुराना सारांश  बना आँसू बहा रहा है. “लव यू माँ...लव यू, मेरी प्यारी मोमी.“ सारांश जब बहुत लडियाता है तो उसे ‘मोमी’ ही कहता है. अंजली का कलेजे में ठंडक पड़ गई, उसने सारांश के सर पर हाथ रख के फिर आँख बंद कर ली.
तीसरे दिन तक अंजली और घर का माहौल दोनों ही लगभग पटरी पर आ चुके हैं. सारांश माँ के पास बैठता है, ठीक से खाना खाता है, गाड़ी भी ले जा रहा है और उसने घड़ी भी बांधनी शुरू कर दी है. पर ट्यूशन उसने नहीं छोड़ी है.
“अंजली”....ऋषि को देख कर ही लग रहा था कि वो सारांश के जाने का इंतजार कर रहा है. “मैंने बात की थी उससे, वो सब जान चुका है.” ऋषि  ने बिना किसी अनास्थिया के सीधा चीरा लगा दिया.
“मैं समझ गई थी, मीता के जाने के बाद से इसके बर्ताव का अंतर भांप गई थी मैं.” अंजू की फीकी मुस्कान में ठहराव है. “पर मीतू को ये सब उसे अचानक नहीं कहना था, उसके इक्कीसवें जन्मदिन पर हम उसे बताने वाले ही थे. खैर, आई विल टाक टू हिम टुमारो.
बात अंजलि को ही करनी थी, ऋषि ऐसे मामलों में सदा पलायन ही करता है, आज भी कर गया. अंजलि चाहती भी नहीं कि उसके और उसके बेटे के बीच कोई आये. वो सारांश के कमरे में उसके पास बैठी है “सारांश, क्या बात है बेटा. ऐसे क्यों कर रहे हो तुम. सिर्फ ये जान के कि तुम एडाप्टेड हो क्या फर्क पड़ गया, तुम हमारे बेटे हो, हमारी जान, क्या कमी रह गई हमारे प्रेम में जो तुम सडनली इतना पराया फील कर रहे हो?“ सारांश के हाथ अंजली के हाथों में हैं है और दोनों अपने आँसू मैनेज करने में लगे हैं.
शादी के पांच साल बाद भी बच्चा नहीं होने और तमाम नामी डॉक्टर्स के हाथ ऊँचे कर देने पर वो सारांश को घर लाये थे. चंद घंटों पहले जन्मी नन्ही जान, जिसे गोद में लेने के बाद अंजली और ऋषि के मन में एक क्षण को भी नहीं आया कि उन्हें दूसरी सन्तान चाहिए. एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा कि ये उन दोनों की मांस-मज्जा का नहीं बल्कि दूसरों की देह का अंश है, उनके जीवन की सार्थकता, उसका सारांश है. जैसे सारी दुनिया के बच्चे बढ़ते हैं ऐसे ही सारांश बड़ा हुआ है. ऐन वैसे ही लड़ते-झगड़ते, अंतहीन फरमाइशों से दुखी करते और अपनी रौनक से माँ-बाप के कलेजे को ठंडा करते. सारांश का होना ऋषि-अंजली के जीवन में पूर्णता का होना है और लाख लाड-बिगड़ा हो पर सारांश के लिए उसकी मोमी उसका फर्स्ट क्रश और डैडा उसके सुपर हीरो हैं. बिलकुल हर घर की कहानी ...न कम न ज्यादा. दो साल बाद सारांश इक्कीस का हो जायेगा और ऋषि-अंजली ने अभी से प्लान कर रखा था कि उस दिन वो उसे ये बात बता देंगे. कि तब तक वो इस को सहने-समझने के लिए मेच्योर हो जायेगा और उसकी एजुकेशन भी कम्प्लीट हो जाएगी. लेकिन ऋषि की मौसेरी बहन ने जो किया वो अब किसी तरह अनकिया नहीं हो सकता.
अंजली सारांश को देख रही है और सारांश सामने दीवार को जिस पर उसने ही  कल-परसों में कभी लिख दिया है- ‘हू आय एम?’ देख अंजली ने भी लिया है पर देख के अनदेखा किये बैठी है. “सारांश, क्या हो गया तुझे. क्यूँ कर रहा है तू ऐसे. बोल बच्चा, बुआ के एक फेक्ट बताने में क्या बदल गया, हम भी वही है और तू भी वही है ना? और इस फेक्ट के ओपन होने के पहले भी क्या कभी ऐसी कोई बात तुझे फील हुई, क्या कोई कमी रहने दी हमने तुझे. तूने कहाँ डिफ़रेंस फील किया. तेरे फ्रेन्ड्स, तेरी कंपनी, तेरे कॉलेज मेट्स में और तेरी लाइफ स्टाइल में क्या चेंज लगता है तुझे? तू हमारा बेटा है सारांश, ऋषि ब्रह्मभट्ट और अंजलि ब्रह्मभट्ट का बेटा, सारांश ऋषिराज ब्रहमभट्ट. यू आर द मोस्ट लवेबल एंड वेल्युएबल वन फॉर अस इन दिस एन्टायर वर्ल्ड एंड यू नो दिस वेरी वेल “
“ मैं जानता हूँ माँ, आय नो एंड अंडरस्टेंड दिस आल, बट मैं क्या करूं. सब जानते हुए भी एक सेकिंड के लिए नहीं भूल पा रहा हूँ कि आय’म एडापटेड. मैं आपका अपना बेटा नहीं हूँ. आपका प्यार-दुलार, ये पेम्परिंग-कड़लिंग सब मर्सी है मुझ पर. मैं एक क्षण को भी नहीं भूल पाता ये फेक्ट कि ये सब मुझे मिला क्यूंकि आप के कोई बेबी नहीं था, अदरवाइज ये कुछ भी मेरा नहीं होता. एवरी....एवरी मोमेंट ये याद आता है मुझे, आप प्यार करते हैं तब भी और मेरी मिस्टेक्स पर डांटते हैं तब भी. आपकी लिबर्टी मुझे फील करती है कि आपकी अपनी संतान होता तो शायद आप मुझे इतनी फ्रीडम नहीं देते और आपके डांटने पर मुझे याद आता है कि मैं आपका बेटा नहीं हूँ तभी तो आप मुझे इस तरह ट्रीट कर रहे हैं. आप केयरिंग होती हैं तो मुझे लगता है कि ये आप मेरा ध्यान नहीं रख रहीं बट अपनी फीलिंग्स क्वेंच कर रहीं हैं और आप केयर नहीं करती तो लगता है कि मैं आपकी अपनी संतान नहीं हूँ न सो आप को मेरी कोई चिंता नहीं.” सारांश के चेहरे पर कैसी कातरता है, अंजली कुछ भी नहीं कह पा रही, उसका सिर लगातार नहीं में हिले जा रहा है .
“माँ मैं क्या करूं माँ, मुझसे इन भुला जाता कि मैं इस घर में भगवान की मर्जी से नहीं आपकी नीड पर आया हूँ. मैं वो बच्चा हूँ जिसकी अपनी बायलोजिकल माँ ने उसे न जाने क्यों छोड़ दिया, जिसके पापा का पता-ठिकाना नहीं, और अब वो दूसरों के घर में दूसरों के रहम पर पल रहा है.”
“सारांश, दूसरा कह के तुम हम तीनों को रिजेक्ट ...”
येस मॉम, आय नो. जानता हूँ मैं कि मैं बहुत बुरा और गलत बोल रहा हूँ, बट वाट टू डू? मैं नहीं भूल पा रहा रहा मॉम?” सारांश के आँसू उसके शब्दों को लीले जा रहे हैं. उसकी कातर आवाज़ अंजली को फिर अचेत करने के लिए काफी है पर उसने खुद को कस के पकड रखा है. “मैं नहीं भूल पा रहा रहा मॉम कि ये घर, और इसका सब कुछ मेरे दादाजी का नहीं हैं ना मेरे असली मम्मी-पापा का.. ऐसा क्यूँ हुआ माँ, मेरे साथ ही क्यों..?”
“सिर्फ तुम्हारे साथ ही नहीं, हमारे साथ कहो सारांश..” अंजली की आवाज सूख के चटक गई है, इतनी सूखी कि सारांश को किरकिरी सी चुभी. उसने चौंक कर माँ को देखा, सूखा उसकी आवाज़ में ही नहीं चेहरे पे भी पसर गया है और आँखों में भी ललछौंही दरारें बन के उभर आया है. “तुम्हें लगता है दुःख सिर्फ तुम्हें ही हुआ है, हमने तुम्हारे आने के पहले भी और तुम्हारे आने के क्षण में भी कोई दुःख नहीं हुआ होगा? हम भी तुम्हारी तरह सेंसेटिव हैं सारांश, दुःख हमे भी हुआ था कि एक बच्चा हमारे अपने लिए ईश्वर ने नहीं बनाया जो आज हमें एक पराये, अनजान बच्चे को अपना कह के लाना पड़ रहा है.” अंजलि की बेलौस, निर्मम आवाज़ सारांश के लिए एक नया रूप है, पर वो सारांश की आँखों में सीधे-सीधे देखती बस कहे जा रही है, उसका लाडला बेटा सामने बैठा रो रहा है पर उसके आँसू अंजली को शायद दिख ही नहीं रहे, “हमने समझाया खुद को, जीवन के इस फेक्ट के साथ रहने को ट्रेंड किया हमने, एंड अब ये भी उतना ही सच है कि मैं और तुम्हारे पापा एक मोमेंट को भी ये फील नहीं करते कि तुम हमारी बायलाजिकल संतान नहीं हो, हमारे लिए तुम अंतिम ख़ुशी हो. सारे सच के ऊपर यही सच है जो हमने याद रखा. और यही रहेगा चाहे तुम स्वीकार करो या ना करो.” अंजलि बगैर रुके, बगैर सारांश की प्रतिक्रिया जाने बोले जा रही है “जानती हूँ तुम बहुत दुखी हो, तुम्हारा दुःख ओबिविअस भी है, तुम्हे दुखी होने का राईट है, तुम चाहो तो खुद को सेल्फ मेड प्रूव करने के लिए घर छोड़ के भी जा सकते हो, बट आई मस्ट से इट्स नॉट फेयर. जानती हूँ तुम ब्रेव और इंटेलिजेंट हो, स्ट्रगल करके जल्दी ही कुछ बन भी जाओगे लेकिन उससे क्या तुम ये सब भूल जाओगे. हमे, हमारे प्रेम, हमारे साथ को भूल जाओगे, भूल जाओगे इस फेक्ट को कि तुम एक तुम जो उन्नीस वर्ष सारांश ऋषिराज ब्रहमभट्ट बन के रहे, आर्फनेज से लाये हुए एडाप्टेड किड नहीं थे, लेकिन अब हो गये हो, इस एक बात से  कुछ नहीं बदलेगा सारांश, ऐसे कुछ भी नहीं बदलता, और अब जो भी है हम सब के सामने है, इसी को एक्सेप्ट कर के जीना होगा बेटा, तुम्हे लगता है हमने नहीं जिया होगा, जिया है. सुना भी है और आगे भी सुनना है, हर हाल में.” अंजलि अब रो रही है और उसके साथ सारांश भी. दोनों के पास कहने को कुछ नहीं बचा, अपने अपने दुःख में दोनों परित्यक्त हैं. अंजलि का बेटा भी और सारांश की माँ भी..अनाथ, अकेले और अभिशप्त .


प्रगल्भा


मेम, हमें नाम लिखवाना है.घनानन्द की आंसुओं में डूबी कविताओं वाली क्लास खत्म हुई ही है. मैंने स्टाफ रूम में आ कर अभी राहत की साँस भी नहीं ली है कि ये सिरदर्द सिर पर आ खड़ी हुई. लेकिन सांस्कृतिक समिति की संयोजक हूँ सो यूथ वीक करवाना ओर उसकी कॉम्पिटिशन्स के लिए नाम लिखना भी जिम्मेदारी है. अब आने वाला सप्ताह इसी धांय-धूंय में गुजरने वाला है. 
पर्स में डिस्प्रिन का पत्ता रख ले सुलक्षणामैंने खुद को कहा, ‘डांस में तो आधा कालेज कूदेगा.


किस कॉम्पटीशन में पार्ट लोगी, क्विज में या डिबेट में? नोटिस में लिखे नियम ओर शर्तें ठीक से पढ़ लीं ना, डिबेट में दो केंडीडेट होने  चाहिए, तभी जा पाओगी.सामने खड़ी लड़की को देख कर मैंने रटे रटाए शब्द बोले. 
नाम बोलो, आर्ट्स में हो या साइंस में?” ये शक्ल से ही किताबी कीड़ा दिख रही है, जरूर क्विज में इंट्रेस्टेड होगी.

मेम हमें सोलो डांस में नाम लिखवाना है. स्वाति शर्मा, बीएससी सेकिंड इयर.लड़की के ये कहते ही मैं ही नहीं सोफे पर बैठे हुए धीर-गम्भीर झा सर तक चौंक गए. पास की कुर्सी पर बैठी अंजू ने बमुश्किल खुद को संभाला ओर खांसने लगी. 
मैं अवाक् भौंचक्की हुई लडकी को देखे जा रही हूँ. ईश्वर उसे बनाने में जितना केजुअल रहा होगा उतनी या उससे भी ज्यादा वो बालिका स्वयं है. सामान्य से जरा सा साफ़ रंग, छोटा सा मुखड़ा, छोटा ही कद और नेत्र लेकिन देह, ओंठ ओर नासिका तीनों भरे-पूरे. एक दूजे के वजूद में खोकर एकाकार हुई भोंहें. और ईश्वर की इस कलाकारी पर उसकी अपनी पच्चीकारी भी कम शानदार नहीं है. छोटे-छोटे चूहे कुतरे से बाल जो आगे उसके लुप्तप्राय मस्तक और पीछे से छोटी सी, मोटी सी गर्दन पर आच्छादित है. आँखों पर कुछ ज्यादा ही मोटे लेंस का बाबा आदम के ज़माने के फ्रेम वाला चश्मा, बिना तराशी भोंहें, शहर के शायद सबसे अनाडी टेलर के हाथों सिला बड़े-बड़े फूलों वाला मेहंदिया सलवार कुरता जिसकी ढीली-ढलंगी आस्तीन से निकलती पृथुल बाहें रोयों से अंटी पड़ी है. त्वचा जैसे युगों से क्रीम के सम्पर्क में नहीं आई और वही हाल ओठों का है. मैंने तनिक नीचे देखा. मर्दानी सी चप्पल पहने छोटे-छोटे रूखे-सूखे पैर भी उसी आर्ट गेलेरी के पीस हैं, जिनके नाख़ून इतने ज्यादा कटे हैं मानो है ही नहीं.
मेम, लिखिए न, स्वाति शर्मा, बीएससी सेकंड इयर. 
लड़की की आवाज़ से मैं चौंक कर बाहर आई और पकडे जाने की खिसियाहट से बचती पर्स में पेन टटोलने लगी स्वाति ने फुर्ती से अपने गांधियन झोले से पेन निकाल के मुझे पकड़ा दिया.

सुनो स्वाति, तुमने पहले कभी डांस किया है?" अंजू ने लपक कर मेरी बात संभाली.
यस मेम, हम स्कुल के प्रोग्राम में डांस करते थे.लड़की का चेहरा सितारा देवी बना हुआ है.
क्लासिक करोगी या पापुलर?” अंजू अब उसके मजे ले रही है, लेकिन स्वाति को शायद समझ नहीं आ रहा.
 “मेम, हम डांस तो क्लासिक ही करेंगे लेकिन आप मेरा नाम पापुलर केटेगरी में ही लिखना, हम ट्रेंड डांसर नहीं हैं नहांय, क्लासिक!! मुझे फिर झटका लगा.
सामने नाम लिखाने को अंगद का पैर बनी खड़ी स्वाति की सादगी और गर्व दर्शनीय है, अंजू और भी कुछ कहती लेकिन मैंने आँखों से अंजू को बरजा ओर लिस्ट में उसका नाम लिख लिया.
जाओ, ठीक से तैयारी करना, सीडी या पेन ड्राइव जो भी लाओ सही सेटिंग से लाना और नाम आने के साथ ही ग्रीन रूम से स्टेज पर पहुँच जाना. रूल्स ठीक से पढ़ लेना और...
और इन बालों को ठीक से सेट कर के आना वरना उलझ के गिर पडोगी.

 मेरी बात काट के अंजू बीच में ही टपक पड़ी. अंजू का दिल नहीं रुक रहा उसकी खिंचाई करने से. डोंट वरी मेम, आइ विल मेनेज.स्वाति ने बेफिक्री से कहा और चप्पलें फटकारती बाहर निकल गई.


क्लासिक...इटस क्रेजी.अंजू खिसिर-खिसिर कर के हंसे जा रही है और अख़बार में चेहरा गडाए झा सर भी अपनी दुर्लभ मुस्कान छुपा रहे हैं.
बस कर, चल चाय पीकर आते हैं.मैं झा सर के सामने नहीं हंसना चाह रही हूँ.

को-एजुकेशन कॉलेज हो और उसका कल्चरल वीक हो तो कार्यक्रम के पहले की तैयारियों में क्या धमाचौकड़ी मचती है ये कोई संयोजक के दिल से पूछे. रातों में भी वही सपने दुस्वप्न बन कर घूमते हैं. हर तीसरा स्टूडेंट डांस कॉम्पिटिशन में पार्टिसिपेशन चाहता है और वो भी अपनी शर्तों पर. एक नौनिहाल तो सलमान खान की तर्ज़ पर केवल जींस पहन कर नाचने को कटिबद्ध होकर आए हैं तो दूसरे साहब का कहना है कि उनके डांस साँग की तो  प्रील्यूर ही तीन मिनट पर खत्म होती है सो उनको सब की तरह पांच मिनट दिया जाना नाइंसाफी है, उन्हें आठ मिनट मिलना उनका कला सिद्ध अधिकार है और तीसरे तमंचे पे डिस्को..की प्रॉप्स में तमंचा ही लाना चाहते हैं. लड़कों से तो खैर आलोक मीणा निपट लेता है पर लडकियाँ तो हमारे ही जिम्मे आनी थी जो इस मामले में लडकों की अम्मा हैं. जितने भी डांस हैं उन सब में उन की महारत है कुछ लडकियाँ क्लासिक और पापुलर दोनों में नाचना चाहती है.

इतनी देर में ड्रेस कैसे चेंज करोगी?’ का बहुत सीधा उत्तर आता है एक ही ड्रेस में कर लेंगे न.पर मेरी, अंजू और रीना तीनों की बोलती बंद हो गई जब एक लड़की ने इसका उपाय सुझाया- मेम, हम क्लासिक के वक्त जींस पर चुन्नी लपेट लेंगे न, फिर वो साड़ी ही तो लगेगी.
ओ लड़की, भेजा फिर गया है तेरा....अंजू ऐसे अवसर पर हाइपर हो जाती है जिसे रीना सम्भालती है. डांस के लिए जैसे गीत लड़के-लडकियाँ चुन के ला रहे हैं न, तौबा! और मज़ा ये कि उनके चुने गीत पर डांस क्यूँ नहीं हो सकताभी ये अपने ही तर्क से समझना चाहते हैं या आलोक, अंजू की धमकी से समझते हैं. मुझे तो सिवा माथा सहलाने के कुछ नहीं सूझता ऐसे में. क्या जमाना आ गया है, या शायद हम ही जूने पड़ने लगे हैं. "आउट डेटेड.!"

खैर...रोजे कयामत, यानि लड़कियों के डांस कॉम्पटीशन के दिन को आना था, आ गई. मैं, अंजू और रीना कई-कई बार कहीं जा के मरने की सोच चुके हैं पर ईश्वर को ये इवेंट करवाना था तो हमें क्यों कर मारता.

 “देखना, सम्भाल के...ध्यान रहे.प्रिंसिपल कई बार डरा चुका है. मेडम, प्रिंट ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में ठीक से कवरिंग होनी चाहिए.
कॉलेज मेनेजमेंट के सेक्रेट्री को टीवी कवरिंग और पेज थ्री से मतलब है. आडिटोरियम की लाईट सुबह से झप-झप कर रही है, खुदा खैर करे. आलोक अपनी किलिंग इंस्टिक्ट को दबाए काम से जूझ रहा है. पार्टिसिपेंट लडकियाँ मेकप किट, ड्रेस और आर्नामेंट्स से लदी-फदी ग्रीन रूम को सिर पर उठाए हुए हैं. और लड़के किसी  भी जुगत से ग्रीन रूम एरिया में एंट्री पाने के लिए जान की बाज़ी लगा दे रहे हैं लेकिन केशव सेन जैसे छः फुटे पीटीआई और उससे भी ऊँचे निकलते रामलाल चपरासी के आगे बेबस हो रहे हैं.
कॉलेज ऑडिटोरियम जो लेक्चर, सेमिनार के दिनों में लगभग अकेला सा ऊँघता रहता है, आज शहर का मोस्ट हेपनिंग प्लेस बना इतरा रहा है. नीचे हाल की कुर्सियां ही नहीं ऊपर बाल्कोनी भी अपनी क्षमता से दोहरी संख्या में बच्चों को सम्हाले चरमरा रही है. शोर, हँसी, सीटियाँ, फब्तियाँ, घुड़कियाँ, झिडकियाँ, विनती, चिरोरी, डाँट, वर्जना के बीच रीना की कोयल सी आवाज़ में कूकती उद्घोषणा इस समय नक्कार खाने में तूती सिद्ध हो रही है.

जरा उस लड़की को तो देख, कमीनी खिड़की तोड़ कर ही भीतर घुस पड़ेगी. स्टार्ट करो यार, स्टार्ट किए बिना शांति नहीं होगी.

अंजू माइक छीनते हुए फुसफुसाई. स्टूडेंट्स प्लीज बी सीटेड कामली, अब हम कॉम्पिटिशन के जजेज को इनवाईट कर रहे हैं, हमारे बीच हैं डॉ रमा सुन्दरम और डॉ नरिंदर कुकरेजा...बोथ फ्रॉम डांस डिपार्टमेंट, एनीबेसेंट कॉलेज. जोरदार तालियों से स्वागत करें.अंजू की दमदार, रोबीली आवाज का असर का तो क्या असर होना था पर हाँ, डांस कॉम्पटीशन स्टार्ट होने की घोषणा का हुआ.
अब हाल में लगभग शांति है. सरस्वती पूजन की औपचारिकता के बाद सबसे पहले क्लासिकल नृत्य प्रतियोगिता रखते हैं. जिनमें बमुश्किल चार-पाँच नाम आते हैं. ज्यादा माथापच्ची नहीं होती, फटाफट निपट जाता है. इस बार भी क्लासिक में चार नाम आए हैं, सब जानते हैं इस बार भी एमए हिस्ट्री की प्राजक्ता दिवसे ही फर्स्ट आने वाली है, वो कत्थक सीख रही है और कई प्रतियोगिता भी जीत चुकी है.

स्टूडेंटस, अब दिल थाम के बैठिये, आपकी फेवरिट पापुलरकेटेगिरी डांस प्रतियोगिता शुरू होने जा रही है.अपना माथा पकड के दिल थामने की सलाह देती अंजू ने आगे जो कहा वो शायद सीटियों और तालियों के शोर में उसने भी नहीं सुना. ऑडिटोरियम की छत मानों शोर से उड़ने को हैं ओर ऊपरी छज्जे पर लटके बच्चे नीचे नहीं गिर रहे ये जादू है. सुन, सत्रह नाम है. टाइम लिमिट पाँच की जगह तीन मिनिट कर देते हैं वरना पागल हो जाएँगे नहीं तो बहरे तो पक्के से हो ही जाएंगे...मैंने रीना की बात बीच में ही काट दी तू पागल हुई है क्या, अभी अनाउंस करके कत्ले आम करवाना है. अभी चुपचाप चलने दे, केंडिडेट देख के इशारा कर देंगे.मैंने पुराने अनुभव का सहारा लिया. जहाँ कोई कमज़ोर केंडिडेट या कोई बोरिंग डांस दिखे, ओपरेटर को इशारा कर दो, काम हो जाता है.


पहली एंट्री कटरीना कैफ की फिल्म का गाना है, प्रतियोगी लड़की जिस तरह से नाच रही है, शायद वैभवी मर्चेंट भी इतनी अच्छी कोरियोग्राफी न कर पाई हो. कमर की लहरें सागर के भँवर को मात दे रही है जिसमें लड़कों के दिल डूब-डूब के डूबे जा रहे हैं जिन्हें बचाने को सीटियाँ ही उनका आखिरी सहारा है. परीक्षाओं के समय कहाँ जाता है इनका ये टेलेंटमैंने टिपिकल मास्टर की तरह सोचा और अपनी नादानी पर खुद ही खिसिया गई.


उसके बाद श्रीया बनर्जी की एंट्री है, सब जानते हैं इसका जीतना तय है, दो सालों से यही जीत रही है. हेटट्रिक..हेटट्रिक..का शोर बता रहा है कि श्रीया की ग्रुपिंग तगड़ी है, बेशक नाचती भी जोरदार है. हर बार कुछ हट के लाती है, इस बार भी शकीरा का गाया केंट रिमेम्बर टू फारगेट यू...लाई है, लेटिन अमरीकी डांस, जिसमें मराली सी लहराती श्रीया की देह, उसका चुस्त पद लाघव, कमर पर दोनों हाथ टिकाए उसकी एक एडी पर ली जा रही फिरकियाँ और अचानक ही आसमान को छू लेने को तत्पर होकर एक पैर पर उर्ध्वगामी मुद्रा में आगे को आ जाना...सच में शानदार प्रस्तुति है. ‘वंस मोर..वंस मोर’ के शोर को अनसुना करते हुए राजस्थानी लोक नृत्य म्हारो हेलो सुणो जी रामा पीर...बजने लगा. सिर, पीठ, बाँह, घुटने ओर पैर पर मंजीरे बांध कर पारम्परिक तेरहताली नाचने की कोशिश में खुद को ही चोट पहुँचा रही अनाड़ी छात्रा को नाचने देना उसके और हमारे लिए भी घातक होता, रीना ने उसे बीच में ही रोक कर अगला नाम पुकार लिया. बीएससी थर्ड इयर की रौनक, उफ्फ्फ ये मिस चिपको..इसे हर प्रोग्राम में हिस्सा लेना होता है और उसकी तैयारी के नाम पर स्टाफ रूम में टीचर्स का सिर खाना होता है. तू देखना, इस के डांस को तो मैं तीन मिनिट में ही रुकवा के मानूंगी.रीना ने मेरे कान में उद्घोषणा की और अपने कहे को सच भी कर दिखाया.

अगला नाम दीपिका देवनानी का है जिसे लड़के व्हिस्की के नाम से बुलाते हैं. सेक्सी बदन और हेप अदाओं की मालिक दीपिका का रवैया लड़कियों को एटीट्यूडऔर लड़कों को हॉटलगता है. लम्बी, गदराई दीपिका नाचती भी ऐसे ही है, बिंदास और ग्लेमरस. और आज भी उसने ऐसे ही महफिल लूट ली. चुस्त केप्री और ट्यूब-टॉप के ऊपर पारदर्शी श्रग पहने मैं कमली कमली मेरे यारा..पर नाचती दीपिका के लिए लड़कों की सीटियाँ और फिकरे बेकाबू हैं पर ज्यादातर लडकियाँ कुढ कर ऊपरी शालीनता ओढ़े बिना तालियाँ बजाए बैठी हैं. कमाल है यार, इसके डांस में रिदम और ग्रेस नहीं छूटता.प्रतिमा जी की बात से हम सब सहमत हैं.
अंजू फुर्ती से अगला नाम पुकार रही है- अब नं सिक्स ....स्वाति शर्मा...ये आपके सामने देवदास फिल्म के काहे छेड़े छेड़ मोहे..गीत पर नृत्य प्रस्तुत करेंगी, मिस स्वातिऔर मुझे वो झल्ली सी लड़की याद आ गई, मैं और अंजू बमुश्किल अपनी मुस्कान रोके हुए हैं. हाल में भी शांति सी है, शायद इसे कम ही लोग जानते हैं. हमारी नजर ग्रीन रूम से आने वाले दरवाजे पर है, आम तौर पर इतनी देर में एंट्री हो जाती है, कहाँ रह गई मुटल्लो . शायद नाम लिखा कर ही रह गई हो, यहाँ तक आने की भी हिम्मत चाहिए, वो लडकी तो वैसे ही...
लेकिन नहीं...मिस स्वाति नमूदार हुई. पर ग्रीन रूम से नहीं वो सामने, मंच के नीचे से भागी चली आ रही है, हाथ के इशारे से सॉरी कहती, लहँगे में लदडफ़दड उलझते-संभलते चढती स्वाति को देखते ही हॉल सीटियों, तालियों ओर हूटिंग के तमाम उपादानों से गूँज गया है. हूटिंग के बीच शान से खड़ी स्वाति की बान देखने लायक है. बादामी लहँगे-चोली के साथ लाल चुनरी साफ़ बता रही हैं कि वो किसी किराये की ड्रेस वाली दुकान की जीनत हैं, जिसे पहनने वाली वाली ने बड़े प्रयत्न से पहना है और जो उतारे जाते वक्त भी एक महा युद्ध से गुजरने वाली है. स्वाति के भरे-भरे हाथ चूड़ी, कंगन से भरे हैं और कानों के झुमके उसकी लटों पर लहरा रहे हैं. लेकिन लटे कहाँ हैं, उसके छोटे-छोटे बाल पता नहीं किस द्रव्य के कारण सिर से चिपके हुए हैं और चश्मे के पीछे झलकती आँखे दो कजरौटियों सी लग रही हैं. बाप रे, भीगा कव्वा’’ अंजू के हाथ का ऑन स्पीकर चुगलखोर निकला और उसकी फुसफुसाहट सारे हाल में सरसरा गई. लेकिन खुनी लिपस्टिक में हँसते स्वाति के ओठों पर कोई शिकन नहीं है. जितना उदार उसका गुलाबी ब्लशर है उतनी ही उदार वो स्वयम भी लग रही है.

अब जब स्वाति ने अपना चश्मा उतार कर पीछे किसी को पकड़ा ही दिया तो डीजे आपरेटर ने हिचकते हुए की बोर्ड पर धरी ऊँगली का दबाव बड़ा दिया और और हाल में गीत की धुन लहरा गई, ‘गीत भी महारानी ने एक दशक पुराना चुना है जिस पर नाच-कूद के सब बोर हो लिए हैं. अब कौन देखेगा इसे, अभी बंद हो जाएगामैं मुतमईन हूँ.मालती गुंदाय केश कारे घुघवारे, मुख दामिनी सा दमकत चाल मतवारी.. 
और स्वाति ने अपनी अदृश्य केशराशि से गुंदी चोटी पीठ पर फैंक कर लहंगा सँभालते हुए कदम अगला धरा हे ईश्वर, बचा लियो, इसने तो चश्मा भी नहीं लगाया है.इस बार खिलंदडी अंजू गम्भीर है, डीजे आपरेटर सतर्कता से ऑफ बटन पर ऊँगली धरे बैठा है. ...चाल मतवाली...ताकित धिना..ता धिना ..ताकित धीना थाई तत.. स्वाति ने तीन ताल में परण लेते हुए हाथ उठाए और और छोटी सी गर्दन के खम के साथ ही मुक्त कर दिया खुद को.

काहे छेड़े छेड़ मोहे..बोल के साथ उसका एक हाथ जो उर्ध्वगामी हुआ तो जैसे नटराज को साथ लेकर लौटा है. अब स्वाति का नृत्य नहीं, नृत्य में स्वाति और स्वाति में नृत्य है...लास्य है...राग है... दही की मटकी संभाले, बीच डगर में कंकरी की मार से ठिठकती-चलती राधिका है... कितना कोमल पद संचालन, कितनी गरिमा है इसकी फिरकी में...और ये सधाव से कान्हा को बरजते हाथों की मुद्राएँ... नायिका की मृणाल सी कलाइयों पर माणिक्य जड़ी सी अंगुलियाँ चकित हो कर स्वयम के चुम्बित मुख को छू कर देख रही है.. देह के नकार के साथ मुग्धा नायिका के चपल नेत्रों का आमन्त्रण... बंद कजरौटी सी ऑंखें नवोढ़ा प्रेमिका के विस्फारित नेत्रों में बदल गई हैं. कहाँ गया सारा शोर और हूटिंग... अब यहाँ सर्वत्र बस नृत्य है, नृत्य जो स्वाति की स्थूल देह से ऊपर है, जो उसके बचकाना वस्त्रों, आभूषणों और हास्यास्पद प्रसाधन  से ऊपर है. इस क्षण में कोई देह नाच ही नहीं रही है जिस के वस्त्राभूषण या प्रसाधन देखा जाए. इस मुक्ताकाशी मंडल पर परम प्रकृति नाच रही है, उस अविनाशी परम पुरुष की प्रिया, उससे अभिसार को जाती, आलते से रंगे कमल-कोमल, मिलन को व्याकुल, उल्लास में धरा को मृदु आघात देते पग तत्परता से उठते, सहम कर थमते.. प्रिय की नटखट अटखेलियों में जिसकी काली कुटिल केशराशि खुल-खुल, बिखर-बिखर के उसके प्रगल्भ मुख को बार बार चूम ले रही है. रस की मटकी को सँभालते उसके हाथों से कभी घुंघट छुटता है तो कभी गागर छलक जाती है...कोई नहीं है उस क्षण में...एक नन्द का ढीठ छोकरा कृष्ण है और एक उस पर रीझती-खीझती मुग्धा षोडशी राधा है, जिसकी ताल, मुद्रा, भाव, शब्द सब नर्तन में है, एक फिरकी..दो फिरकी...पाँच फिरकी...पंद्रह फिरकी...सारा ब्रह्मांड फिरकियाँ खा रहा है. दिगंत को छू कर आती हथेलियाँ कान्हा के परस से कोमल होकर हो कर कभी ह्रदय को छूती हैं तो कभी गालों को...कलाई की सारी चूड़ियाँ तो इस जोराजोरी में चटक गई.. हाथ जिन्हें गुहार करती राधिका कभी दिखाती है तो कभी छुपाती है...ओ माईई...एकाकार है चिदंबरा पृकृति ओर परम पुरुष.. कहाँ गई सारी सीटियाँ, वो हुटिंग, वो जोकरों जैसा प्रसाधन, वो चूहा कुतरे से तेल चुआते बाल, वो विचित्र वेशभूषा, वो नाटा कद और पृथुल देह, स्वाति के अप्रतिम नृत्य और भाव मुद्राओं के बीच ...इस निर्व्याज प्रस्तुति में सब शब्दातीत हो गया है ...प्रगल्भ धारा ये किस रेगिस्तानी नदी से फूटी?
स्पीचलेसरमा सुन्दरम मेम ने हाथ का पेन टेबल पर धरते हुए आँखें पोंछी. गीत अपने चरम पर आके ठहर गया है और आखिरी परण के साथ स्वाति भी. हाथ जोड़े खड़ी स्वाति के लिए पहली ताली अंजू की है और उसके बाद ताल ब्रह्म में डूबा सभागार भी जाग गया और एक क्षण में लुप्त हो गया रंग-शब्द-रूप से जगमगाता वो मायावी इंद्रजाल जिसमें इस असीम आकाश को बाँहों में समेटती और धरती के सीने पर चित्र खींचती नायिका अविनाशी पुरुष को रिझा रही थी. सामने मंच पर स्वाति खड़ी है जिसका काजल फ़ैल के गालों तक आने को है. सहज भाव से चश्मा लगाती स्वाति अपनी वही अकृत्रिम हँसी बिखेर रही है जिस के कारण पाँच मिनिट पहले उसे डोडोकी उपाधि मिली थी. तालियाँ लगातार बजती रहती अगर रीना अपना रुंधा गला साफ़ करते हुए अगले नाम की घोषणा नहीं करती.

इला न देणी आपणी


मैं एकटक उसे देखे जा रही हूँ, अपलक. राम के पूर्वज निमि अगर इस कलियुग में भी पलकों पर ही रहते हैं तो वो निश्चिन्त ही इस समय स्वयं की पलकें झपकाना भी भूल गए होंगे. सच कह रही हूँ कि मैंने इस के पहले ऐसा सम्पूर्ण सौन्दर्य शायद ही कहीं देखा हो, दर्पण में भी नहीं. झुक कर सब्जी का डोंगा उठाती उस प्रोढा स्त्री का सौन्दर्य विधाता के खुले हाथों लुटाये रंग-रूप में ही नहीं है उसके व्यक्तित्व में ही गुंथा हुआ है. उसकी पतली कलाइयों की लोच में, अकृत्रिम पद-लाघव में, उसकी कमर में खुंसी सस्ती सी सिंथेटिक साड़ी के तोतई हरे पल्लू में, उसकी सुघड़ नाक में पहने बड़े से बुलाक में, जो कदाचित उस का एकमात्र शेष बच रहा आभूषण है, और उसकी अंतर्मुखी सी शालीनता में जो मैं लगातार कल से नोट कर रही हूँ. वो अंतर्मुखता जो न सायास है न ओढ़ी हुई, न उसमे दैन्य है न उदासी. स्वयं के लिए आत्मदया और दुनिया के लिए उपेक्षा तो कतई नहीं, वो एक लय में डूबी है जो रोबोटिक भी नहीं और लौकिक भी नहीं. क्या है इस गरीब, अजनबी, अधेड़, कामगर स्त्री में, मैं समझ भी नही पा रही हूँ और मुक्त भी नहीं हो पा रही हूँ. माँ के जाने के दुःख और उनके गंगभोज की व्यस्तता के बीच भी वो मुझे लगातार अपील कर रही है, या कह लूँ कि हांट कर रही है. उसे मैंने एक बार भी मुस्कराते नहीं देखा पर वो कहीं से भी दुखी नहीं लग रही. हे भगवान, मैं तो इसका विश्लेषण करने बैठ गई, ‘हर जगह कहानीकार बने रह कर चरित्र खोजते रहना ठीक बात नहीं हाँ मालती,’ मैंने खुद को टोका और विदा में दिए जाने वाले भगोनों और मेहमानों का मीज़ान बिठाने लगी, अभी तो कुछ साड़ियाँ भी और मंगवानी होगी और चार-छः भगोने भी.
“भाभी” मैंने भाभी को आवाज़ दी.
“हओ बाई, बोलो.” पीछे भाभी की जगह कोई नई आवाज़ आ खड़ी हुई थी, मेरे लिए अपरिचित. मुड के देखा तो वही किताबी चेहरा जिससे पीछा छुड़ा के मैं यहाँ भंडार में घुसी थी. “नहीं, मैं भाभी को...”
“आई बाई सा, वो नसियां वाली काकी सा को छोड़ने गई थी. तू जा सुरसती, बाई सा तुझे नहीं, मुझे बुला रही थी. दरअसल इसे यहाँ सब भाभी ही कहते हैं न तो... कितने भगोने और साड़ी कम पड़ रही है?” मेरी भाभी एक बात में बहुत कुछ निपटा रही है. सुरसती के जाने के बाद हमें बहुत कुछ करना था सो उस समय मैं सब कुछ भूल-भाल गई पर मैंने दिमाग की टू डू लिस्ट में डाल लिया कि जोधपुर लौटने के पहले एक बार सुरसती से बात जरूर करनी है, अगर ये राजी हो गई तो.
गंगभोज की व्यस्तता ओर मेहमानों की गहमागहमी के डेढ़ दिन जब गुजर गए और बच रहे आधा दिन के लिए हम लोग कुछ फ्री हुए तो वो फिर मुझे हांट करने लगी.
“सुनो भाभी” मैंने उसे पुकारा पर मेरी आवाज़ पे उसने जरा भी तवज्जो नही दी और अपनी आत्मलीनता में डूबी धुले बर्तन पोंछती रही, अब जब उसे मालूम है कि मैं उसे भाभी नहीं बुलाती तो बेकार देखने का भी क्या फायदा. “सुनो ना सुरसती भाभी, मैं तुम्हे ही बुला रही हूँ.” अब मैंने नाम लेके पुकारा और मैं अचंभित रह गई ये देख के कि सुरसती इस सहजता से पास आ खड़ी हुई जैसे वो सदियों से मेरे पुकारे जाने के इंतज़ार में ही खड़ी थी. उसके चेहरे पर सहज चुप्पी के अलावा कुछ नहीं है, न झिझक, न उत्सुकता, न प्रश्न, न उतावली. बस पृथ्वी सी सहजता. “बैठो भाभी” मैंने कहा तो उसके मुख पर एक अनिच्छा सी उग आई जो उसने छुपाई भी नहीं, “बोलो बाई, क्या चाहिए, पानी लाऊं या चाय बना दूँ.” उसने गीले हाथों को सिन्दूरी साड़ी के किनारे से पोंछ लिया. “नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस तुमसे बात करने को जी कर रहा है.” उसके सादा और स्ट्रेट फारवर्ड मिजाज़ पर न मेरी कोई चतुराई चलती न ही मैंने कोशिश की, बस सीधे से अपनी बात रख दी. “तो कर लो, पर क्या बात करोगी? मैं तो तुम्हें जानती भी नहीं, और ना तुम मुझे” सुरसती शार्प है. “अरे, तो मुझे कौन सा रिश्तेदारी निकालनी है भाभी. बस ऐसे ही तुम अच्छी लगी तो बात करने का मन हो गया, बैठो.”
मेरे नज़दीक चौकी पर बैठी सुरसती को मैंने जरा गौर से देखा, क्या रंग-रूप दिया है विधाता ने इसे... तिलोत्तमा... अपरूपा.. भुवनमोहिनी जैसे शब्द इसी रूप को मिले होंगे ना. “इसी रूप ने आज मुझे तुम्हारे आगे बिठा रखा है बाई.” सुरसती में बुद्धिमानी और स्त्रियोचित अंतर्दृष्टि दोनों है, नज़रों से भाँप लेना उसे शायद इस फुर्तीली देह के साथ ही मिला है तभी तो इस धर्मशाला की सबसे महंगी कर्मचारी है. ”मैं समझी नहीं भाभी, रूप के पुण्य से यहाँ हो या पाप से?”
“अब ये तो मालिक ही बताएगा आगे-आगे, मैं तो बस भोग रही हूँ.”
“कहाँ की हो भाभी..”
सुरसती ने कुछ क्षण तोलती हुई, चतुर नज़रों से मुझे देखा, पास के हाल में सामान सहेजती भाभी को देखा, अपने आसपास के सूने चौक को देखा और हर तरह से आश्वस्त होके जवाब दिया “थी तो होशंगाबाद जिले की, पर अब जहाँ ये पेट ले जाये वहीं की हो जाती हूँ बाई. अब तो ये पेट ही मेरा ठिकाना है और हाथ-पैर मेरे संगी साथी.” सुरसती ने अपनी ओर आते लंगड़े चींटे को तर्जनी के निशाने से बरामदे के नीचे हिट कर दिया. “पढ़ी-लिखी हो?” “हाँ, बारह दर्जे तक स्कूल गई थी, फिर सब छूट-छाट गया.”
“ भाभी, तुम थोड़ी-बहुत पढ़ी हुई भी हो, रंगरूप से भी अच्छे घर की दिखती हो फिर यहाँ ये काम क्यों...”
“ कहा ना बाई, ये रंगरूप मुझे नचा रहा है और मैं इसे...”
क्या...क्या कहा इसने आखिर में..ये रंगरूप को नचा रही है, कैसे... अगर ये बात कोई रूपजीवा कहती तो बात थी पर इसके, एक रसोई-चौका करने वाली, अधेड़ औरत के मुँह से ये बात, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा पर मैं चुप रही. कुछ तो है ही इसमें, ऐसे ही तो नहीं हांट कर रही ये मुझे... इस स्त्री के सहज बर्ताव के पीछे भी क्या एक रहस्यमय अतीत है. मुझे खुद की ‘सास-बहु सीरियल मार्का बुद्धि’ पर हंसी और चिढ दोनों आई. ‘खुद से खुद ही बुनती-उधेड़ती रहोगी या इस से भी कुछ सुनोगी’ मैंने खुद को चुपाया और सुरसती से मुखातिब हुई. “कितने साल की हो भाभी ?” “अबके नवम्बर छियालीस की हो जाउंगी बाई, 28 नवम्बर लिखी थी स्कूल के कागज में.” अरे हां, ये तो पढ़ी-लिखी भी है ना. मुझे याद आ गया. “स्कूल में क्या विषय पढ़ती थी भाभी तुम?” मैं बात करने को बात कर रही हूँ कि कहीं से तो कोई सूत्र मिलेगा लेकिन जब भाभी ने कहा “अंग्रेजी और भूगोल” तो मैं  एक बार फिर चौंक गई. सच में कहानियों का पात्र है ये स्त्री. “फिर आगे पढाई क्यों छोड़ दी, यहाँ कैसे आ गई, घर में क्या और कोई नहीं जैसे कितने ही प्रश्न मेरे मन में थे, सच कहूँ तो पूछने का मन भी था, लेकिन इस तिलोत्तमा सुन्दरी में कुछ तो ऐसा है कि मैं ज्यादा सीधे-सीधे कुछ नहीं पूछ पा रही हूँ और कुछ ऊटपटांग भी पूछ ले रही हूँ, जैसे मैंने अचानक पूछ लिया “भाभी, तुम्हारी शादी तुम्हारी पसंद से हुई थी?” “नहीं, अब होगी.” भाभी के कोमल रूप पर सुर्खी दौड़ गई, कठोर सी सुर्खी ये एक और ट्विस्ट है, समझना मुश्किल है कि ये डायलॉग ख़ुशी में आया है या तंज में, इसकी अब तक शादी ही नहीं हुई है या मनपसंद की नहीं हुई है?
“क्या ! शादी या मनपसन्द वाली शादी?” मैं बिना आगे-पीछे सोचे धडाक से बोल गई और अपनी इस बदफैली पर भीतर से सहम भी गई पर घटनी तो घट चुकी थी और... और भाभी अब भी सहज थी. उसकी नाक का फूल स्थिर था. “सादी तो हो गई बाई, अब तो मनपसन्द वाली होनी है.” हे प्रभु, एक और सिक्सर. क्या स्त्री है यार, कैसी तो बेबाक और कैसी तो बेलौस. ये तो डराती है, कहीं गलत नम्बर तो नहीं डायल हो गया मुझ से... कौन जाने कोई आवारा किस्म की ही हो जो अपने बुरे लक्षणों के कारण घर से भाग आई हो. पर ऐसा होता तो धर्मशाला मेनेजमेंट इसे नौकरी पर रखता, इसे भंडार की चाबी रखने का सम्मान देता? चलो मान लिया मेनेजमेंट तो पुरुष वर्चस्व का है लेकिन इस कस्बेनुमा शहर की खाँटी पारम्परिक औरतें भी भाभी की तारीफ़ करती हैं जो ऐसी-वैसी औरतों को देखते ही मुँह नोचने पर उतारू हो जाती हैं.
“क्या सोचने लगीं बाई?” सुरसती ने पहली बार अपनी ओर से बात बढाई
“तुम बहुत अलग हो सबसे, रूप में भी और बुद्धि में भी.” सुरसती मेरी बात का जवाब दिये बगैर चुप बैठी है, तुम्हारा पहले वाला पति कैसा था सुरसती भाभी?” लंगड़ा चींटा फिर बरामदे में चढ़ आया है.
“था नहीं बाई, अब भी है.” बाप रे... मैं सनाका खा गई, ये बेवा या तलाकशुदा नही, पति को छोड़ कर आई हुई औरत है. ’चालू’ मेरे मन में पहला रिएक्शन वही उभरा जो मर्दवादी समाज में बुनी गई स्त्री का होना था. उसकी नाक का फूल थरथराया “मैं ऐसी वैसी औरत नहीं बाई. होती तो इस पराये पराए देस में चौका-बासन नहीं करती होती.” सुरसती की आवाज भी काँप रही है, ना जाने कौन सा जेस्चर मेरे रिएक्शन की चुगली कर गया जिसने इस मजबूत औरत को रुला दिया. मैं बिना कुछ कहे मुजरिम सी बैठी जाजम पर सरसराते लंगड़े चींटे को देखती रही. “अभी आप घर जाओ बाई, मैं रात को आउंगी. मुकुल भैया का घर जानती हूँ मैं.” सुरसती ने एक टूक फैसला सुनाया, घिसटते लंगड़े चींटे को अपनी चप्पल के आघात से देहमुक्त किया और भंडार में घुस गई.
रात 10 बजे के लगभग, जो  मैंने सोचा था ठीक उसी समय, सुरसती भाभी लान में आ खड़ी हुई और वहीँ बैठने का संकल्प लिए एक कुर्सी पर जम गई. हालाँकि जाती हुई हुई ठंड है पर रात दस बजे लान में बैठना... खैर.
“अब पूछो बाई, का पूछने हैं तुमाए लाने. ऐसे तो हम कोनऊ को नईं बताते हैं पर तुम इत्ती बड़ी मास्टर, लिखवे-पढवे वाली दीदी, चार दिन से हमाए चक्कर खा रही हो, हमारे बारे में सोचत हो तो बताने आ गए. तुम हम पे साई एक कहानी लिखई देव बाई.” यहाँ खुल के बुन्देलखंडी में बोलती सुरसती अपने स्वभाव के फुल फार्म में है, फोकस्ड, टू द पॉइंट. मुझे भी इधर-उधर की बात करने का कोई औचित्य नहीं लगा. “कोई नई बात तो है नहीं भाभी, तुम मुझे सबसे बहुत अलग लगी और मेरा तुमसे बात करने का मन किया. और बात करने के बाद तुम मुझे और भी ज्यादा अलग लग रही हो, बताओ न कुछ अपने बारे में.”
“बताऊँगी, बतावे तो आये हैं, तुमाओ भरोसा भी है और जा तसल्ली भी के अगर हम मर गए तो जो सच हमाए संग तो ने मरहें न. ऐसे काय देखत हो बाई, हमाई मौत तो हमाए संगे चल रही है. और तुम डरत काय हो, इते अबे कछु ना हुइए.” सुरसती को राम ने कोई भीतरी आंख तो जरूर दी है जो वो सामने वाले की एक-एक साँस को पढ़ लेती है, “तुम भीतर जाओ लाला.” मेरा भतीजा पास आके बैठने लगा था कि सुरसती ने उसे बेहिचक बरज दिया.
“हम होशंगाबाद जिले के एक छोटे से गाँव के ठाकुर की मोडी आए. दाल-रोटी खात भये गिरस्थ घर की मोडी. सब मोड़ियों के जैसे घर को काम करत, भईया-बहनों से लडत, मताई से ठुकत-पिटत, स्कूल जाती मोड़ी. सब मोड़ियों में और हम में बस एक ही अंतर हतो कि बिधना ने हमाए लाने ये रंगरूप दियो जो हमाए मताई-बाप के जी की आफत बन गयो. राम कोनऊ को जे रूप ना दे बाई. एइके कारण आज हम दर-दर के हो रहे हैं.”
“क्यों भाभी,” शायद इसका अपहरण हुआ हो या बलात्कार के बाद घर से निकाल दी गई हो, मेरे टेलीविजनी प्रीडिक्शन चालू है. शुक्र है सुरसती अपनी यादों में आँखे फेरे हैं, वरना अभी एक तीर आता.
“माँ-बाप सारे माँ-बापों जैसे थे, वो गरीब के धन की तरह हमें सम्भाल-सम्भाल के रखते, सारे बखत चौकसी की आँख रखते, अकेले घर से जाने की छुट न घर पे फालतू आदमी आने की रजा. स्कूल भी जाती तो बहन के साथ. उसकी छुट्टी हो तो मुझे भी घर रहना पड़ता. न खेत पे अकेली जा सकती थी ना हाट-बाज़ार. मेले-ठेले, शादी ब्याह का मतलब ही नहीं. जहाँ अम्मा, जिज्जी जाये वहीं जाओ बस. और तो और दिसा-मैदान भी अम्मा के बिना नहीं निकल सकते थे हम.” सुरसती ने यादों की पोटली फैला ली है और खुद भी उसमें उलझ गई है, मैं साफ देख रही हूँ कि अपने रूप का वर्णन करते समय वो जरा भी खुश नहीं बल्कि तिक्त ही हो रही है. “अम्मा अकेले में लाड लड़ाती पर सबके सामने गालियाँ देने के मौके तलाशती. घर में वैसे भी कोई घी-दूध की धार नहीं बहती थी पर जो भी था उसमे से भी मुझे कम से कम दिया जाता कि मेरी देह पहले ही लम्बी-पूरी थी. जिज्जी दो बरस बड़ी हो के भी सूखी पापड़ी सी थी सो वो भाई के साथ घी-दूध खाती, मुझे चिढाती और मैं कक्का के डर से चुप बैठी कुढती रहती.” सुरसती फिर से हिंदी में बोलने लगी है, शायद समझ गई है कि मुझे बुन्देलखंडी कम पल्ले पडती है.
“क्या तुम्हारी बहन सुन्दर नहीं थी?”
“थी. अम्मा-कक्का दोनों सरूप थे तो हम तीनों बच्चे ही बहुत अच्छे रंग-रूप के थे पर मेरे साथ खड़ी होके तो वो भी उन्नीस पडती थी. वो ही क्या आसपास के गाँव की हर लड़की मुझ से उन्नीसी ठहरती थी, इस कारण मैंने बहुत कुछ झेला सहा भी है बाई, गाँव की लडकियां न मुझसे दोस्ती करती न मुझे अपनी टोली में साथ लेती. इसी कारण मैंने स्कूल में भी बहुत नीचा देखा है.” प्रतिपदा की चांदनी सुरसती की नाक के फूल को छूने के प्रयास में उसकी लम्बी कंटीली बरोंनियों में उलझ गई है और वहाँ से निकलने की कशमकश में उसकी बरोनियों को थरथराने में लगी है. अकम्प बैठा उसका प्रोढ़ सौन्दर्य लॉन में आसक्ति और विरक्ति का मिलाजुला अजीब सा प्रभाव पैदा कर रहा है. अचानक मुझे आज पहली बार ये अनुभव हुआ कि ऐसा रूप विरक्ति के बिना आसक्ति नहीं दे सकता और किशोर उम्र की युवतियाँ इस से खौफ खाती थी तो क्या अनहोनी करती थी. किसी भी युवती को कमतर दिखना नहीं अच्छा लगता. हवा में खुनकी बढ़ गई है सो सुरसती ने अपनी चटख गुलाबी साडी का पल्लू गले में लपेट लिया है और बाउंड्री पर रखे पोधे को गौर से देख रही है.
”ये हरसिंगार है ना बाई? हमारे गाँव में नर्मदा मैया की कृपा है, खूब हरियाली और पेड़-पोधे पनपते हैं वहाँ. मुझे बहुत शौक था धरती और पोधों का और इसलिए मैं ने भूगोल लिया था दसवीं के बाद, पर....” सुरसती के बाकी शब्द गले में अटक गये लेकिन उनका अर्थ मुझ तक फिर भी पहुंच गया. तुम भी मेरे देश की उन करोड़ों लड़कियों जैसी हो जिनकी पढने-लिखने की चाह समाज का भय लील जाता है. वो भय जो पिशाच की तरह माँ-बाप के गले में हर समय झूलता रहता है, तब तक जब तक कि ब्याह के मंडप में खड़ा हो कर लडकी के सपनों की बलि ना लेले. इस बेचारी के साथ भी यही हुआ होगा. सुरसती अब जमीन पर लगे छुईमुई के पोधे को छेड़ने में लगी है. “बाई इसे उखाड़ के फैंक दो, ऐसे कमजोर पोधे को घर में रखना ही क्यों जो छूते ही मुरझाए. पोधे मजबूत हो या फिर गुलाब जैसे कंटीले.” और मुझे लंगड़े चींटे को मसलती चप्पल याद आ गई. “छोडो भाभी, तुम अपनी बात बताओ ना.” मैं उसकी तरह टू द पॉइंट हूँ,
“हओ बाई. तो, ऐसे करते ही हम दोनों बहने जवान हो गई. मैं दसवीं में और जिज्जी बारहवीं क्लास में थी जब दीदी को लड़के वाले देखने आये. मुझे पहले ही दूसरे गाँव मौसी के घर पहुंचा दिया गया कि कहीं लडके वाले मुझसे  मिलने की इच्छा ना जता दें और मेरे कारण दीदी के नसीब से इत्ता अच्छा घर-बर ना छूट जाए. खैर, पास के गाँव के छोटे ठिकानेदार के बड़े बेटे ने हमारी जिज्जी को पसंद भी कर लिया और उन दोनों का ब्याह भी हो गया. जिज्जी शादी के बाद घर लौटी तो देह सोने, संदल और सिल्क से गमक-दमक रही थी और वो खूब खुश थी. जीजाजी हमसे भी बड़े खुश रहते, कित्ती बार हमे घर भी बुलाया पर न हमे जाना पसंद था न अम्मा-कक्का को भेजना. जीजाजी जब भी घर आते, हम दोनों भाई-बहनों के लिए कपड़ा-मिठाई लाते, हम से खूब बातें करते. बड़ों का मान रखते, अम्मा-कक्का से आंख झुका के बात करते. साल भर में जिज्जी के पांव भारी हो गये, हम सब खुश थे. मेरी पढाई भी अच्छी चल रही थी और कक्का जीजाजी के साथ मिल कर मेरे लिए लड़का भी देख रहे थे.” पुराने दिनों में खोई सुरसती के कुछ साल भी मानों पीछे लौट गये हैं. वो प्रोढ़ा से किशोरी में तब्दील हो गई है. अपने अच्छे दिनों को जीती किशोरी. भाभी दो बार चक्कर काट गई, वो चाहती हैं कि हम कमरे में नहीं तो कम से कम बरांडे में तो बैठ ही जाएँ पर सुरसती अंगद का पैर और मन दोनों रखती है. “तुम चिंता नहीं करो दुलहिन,  को कुछ नहीं होगा, अब इत्ती ठंड नहीं है.” दरअसल सुरसती भाभी से पहले से ही जरा खुली हुई है तभी तो बेहिचक घर आ जाती है, उसने भाभी को दुल्हिन कहने का अधिकार भी ले रखा है. कोई जरूरत पड़ने पर वो भैया-भाभी के पास ही आती है. और उसकी जरूरतें होती हैं मनी ट्रांसफर करवाना जैसे बैंक के छोटे-मोटे काम या कभी कोई दवा ला देना. “और कक्का को मेरे दुल्हे के लिए ज्यादा खोज भी नहीं करनी पड़ी, जीजाजी की बुआ के लडके से मेरी सगाई हो गई. और आते जेठ का ब्याह भी तय हो गया.”
और लड़का तुम्हें पसंद नहीं था,” मेरा उतावला स्वभाव अपने ही निष्कर्ष खोज रहा है, इसी ने तो बताया था कि अभी मनपसन्द की शादी होनी बाकी है.
“उस उम्र में कोई लड़का जल्दी से बुरा नहीं लगता बाई, फिर ये तो माँ-बाप का ढूंढा हुआ लड़का था. बिन बाप का बेटा, घर का गरीब था पर पढने में बहुत तेज था, अच्छा रंगरूप, कॉलेज में बीएससी पढ़ रहा था, तो क्या बुरा लगना था, फिर भी मैं खुश इसलिए नहीं थी क्यूंकि मेरी पढाई छूट रही थी.” सुरसती का ये वाक्य राजनैतिक सा है, लड़का पसंद था या नहीं कुछ स्पष्ट नहीं हुआ. चांदनी भी उसकी पलकों से निकल के नीम के पत्तों से आँखमिचोनी में लग गई है, सो साफ़ दीख भी नहीं रहा कि उसके मन में क्या चल रहा होगा.
“मेरे शादी के घोड़ी-बाजे, धर्मशाला सब तय हो गए थे, बुलावे का पहला कार्ड गणेश जी को भेज दिया गया था और अम्मा ने मौत-उठावने में जाना बंद कर दिया था, लेकिन भेमाता को तो कुछ और ही मंजूर था, जिस दिन आंगन में पड़ोसनों ने पहली बरनी गाई उसी रात जिज्जी को जोरदार दर्द उठा, उसे घर पर ही छ्मासा बच्चा हुआ और अस्पताल ले जाने तक चटपट में खेल ख़त्म हो गया.” ओह, वही फेमिली मेलोड्रामा. मुझे आगे की सारी कथा समझ आ गई. अब जीजा से ब्याह और क्या.
“सही सोच रही तुम बाई” सुरसती ने फिर मेरा मन पढ़ लिया. “मैं हल्दी लगी, पीढ़े चढ़ी, बान-तिलक सब हुआ पर बियाही गई जीजाजी से. मानसिंग, मेरा मंगेतर, जीजाजी का दुःख देख के खुद ही पीछे हट गया तो उसकी माँ ने भी कुछ नहीं कहा और मेरे माँ-बाप की तो औकात ही क्या थी.” सुरसती का मुख और वाणी दोनों निर्विकार है.
“तुम्हारी मर्जी के बिना...”
“हम तो जिज्जी के शोक और अम्मा के दुख से पगला रहे थे, सो बिना कुछ सोचे सब करते गए.” बहुत सामान्य सा चरित्र है ये औरत तो, मैं एवेंई इसे इतना फुटेज दे रही हूँ? मेरे मन ने पाला बदलना शुरू कर दिया, कौन सी नई और अनोखी कहानी है इसकी, ऐसी गाथा तो लगभग हर दुखी आत्मा के साथ संलग्न मिलती है.
“फिर तुम यहाँ कैसे... ?”
“बताते हैं बाई, जरा धीरज धरो, आप बहुत उतावली हो, इत्ता उतावलापन ठीक नहीं” सुरसती पहली बार हंसी है और मैं उसकी बात पर नाराज होने की जगह वाकहीन बनी उसकी हंसी देख रही हूँ, जैसे कोरे घड़े से छलकती मदिरा, और उस पर उसकी हंसी से चमकती काली आँखे... जैसे कांच की प्याली में धरा अफीम. कोई कैसे इससे अछूता रह सकता है. मेरा मन मर्दाना सा होने लगा.
“सारे दुख-शोक के बीच सादगी से हमारा ब्याह हुआ और ठाकुर सा ने मुझे राजरानी बना दिया. सातों सुख मेरे आँचल में ला धरे थे उन्होंने. मैं खुश न होकर भी खुश रहती, अम्मा-कक्का भी मेरे सुख में जिज्जी का दुख भूलने की कोशिश कर रहे थे. बियाह के लगभग चार बरस बाद मुझे एक बच्ची हुई, ऐन मेरे जैसी, जैसे विधाता ने मेरा ही रूप दुबारा घड दिया हो. ठाकुर सा ख़ुशी के मारे बावले से हो हो गये थे. राजराजेश्वरी कह के बुलाते थे वो बिटिया को. जिस दिन मैंने कुवा पूजा उस दिन सारे गाँव को न्योता दिया लगा, खाने-पीने दोनों का. ठाकुर सा भी जम के छके. नाच-गाने का भी खूब रंग जमा. जब रात आधी ढल गई, आंगन में शांति हो गई तब ठाकुर सा मेरे पास आए, वो बहुत खुश थे. आते ही बच्ची को गले से लगा के उससे खेलने,बातें करने लगे. नशे की झोंक में कभी हंसते, कभी रोते, कभी उसे लड़ाते तो कभी मुझे दुलारते.
‘मेरी बेटी, मेरी राजराजेश्वरी, मेरी लाड़ो, तू मेरे जीवन की जोत है, मेरी ख़ुशी है तू. सरो, मैंने आज पांच बीघा जमीन खरीद ली है इसके नाम, और होशंगाबाद में एक प्लाट भी ले लिया. मैं इसे खूब पढ़ाऊंगा-लिखाऊंगा, जीवन के सारे सुख दूंगा और बहुत बड़े ठाकुर घराने में ब्याहुंगा,’ कहते हुए ठाकुर सा ने पंचलडी की मटरमाला जेब से निकाल के मेरे हाथों में धर दी. बेटी की ख़ुशी और ठाकुर सा की बातों से मैं भी खुश थी और इसी भावुकता में कोमल होकर मैं ठाकुर सा के गले लग गई, चार सालों में पहली बार. ‘मेरी सुरो, आखिर मैंने तुझे पा ही लिया, कितने पापड़ बेले मैंने तुझे पाने को, हत्यारा भी बना, पाप भी कमाया पर आज तुझे और लाडो को पाके मैं धन्य हो गया, अब इसकी और तेरी ख़ुशी में ही मेरा स्वर्ग है, अब मर के नरक में भी जाऊं तो कोई गम नहीं होगा मुझे.’ ठाकुर नशे और ख़ुशी में बक गया कि उसी ने जिज्जी को मारा था, मेरे इसी रूपरंग को पाने की खातिर.” सुरसती की आवाज़ नर्क से आ रही है. नारकीय यादों की बदबू के भभके से सडती और कालकूट सी जहरीली, जिसकी लपट मुझ तक आ रही है, मेरा आपा झुलसने लगा. मैंने देखा सुरसती का सर्वांग कस के कठोर हो गया है. उसका गुलाबी आँचल उसके गले में पहले से भी ज्यादा कसा हुआ लग रहा है. नीम के फूलों की कसैली गंध वातावरण में महक रही है और पास के बंगले से किसी बच्चे का रोना और उसकी माँ का बहलाना समवेत स्वर में इधर बह के आ रहा है.
“बालक की रुलाई में भी भगवान बसते हैं बाई.” सुरसती उन आवाज़ों पर अभिभूत सी कह उठी. “मेरी बच्ची भी रो पड़ी थी उस छन में और बस, मुझे ईश्वर का इशारा समझ आ गया.”
“मार दिया तुमने उसे?” मैंने सबसे नजदीकी कयास लगाया. और सुरसती मेरी और देख के दुबारा हँस दी, एक नादान को देखती सयाने की हँसी.
“नहीं बाई, मैं उसे मार देती तो अपना बदला कैसे चुकती, वो राक्षस तो आज भी जिन्दा है. आज इक्कीस साल होते आए, पागलों की तरह डोलता रहता है, मुझे और अपनी बेटी को खोजता रहता है. वो बेटी जो उसकी जान थी, उसके बिछोह में मारा-मारा फिरता है.”
“तुम उसे छोड़ आई थी?”
“और क्या करती, धोखे से जमीन पे कब्जा करने वाले को फसल नहीं मिलने चाहिए ये मेरा मानना है और मैंने उसे नहीं ही लेने दी. उसने मेरी बहन छीनी, मैंने उसकी ख़ुशी चुरा ली. सुबह मुँह अँधेरे ही अपनी बेटी को लेके घर से निकल गई तो मुड के नहीं देखा. तब से अब तक कितने धक्के खाए, क्या-क्या सहा, पर लौट के नहीं गई.”
“सवा महीने की बच्ची को लेके निकल गई, कैसे पाला होगा तुमने अकेले, वो भी नई जगह पर?” मैं अवाक रह गई. “जैसे सब गरीब अकेलियों के बच्चे पलते हैं, मेरी बच्ची भी पल गई. और मैं भावुक जरूर थी बाई, पर मूरख नहीं, मैंने बेटी को लेके घर छोड़ा था तो उसकी चिंता थी मुझे. मेरे पास घर से लिया कुछ पैसा-टका था उस समय, और कुछ गहना-गांठा भी. शुरू के कुछ महीने बैठ के खाया, बाद में ये रसोई का हुनर काम आ गया.” सुरसती के हाथ में अन्नपूर्णा बसती है ये सब जानते हैं.
“और उसने तुम्हे ढूँढा नहीं?”
“क्या लगता है तुमको बाई, नहीं ढूंढा होगा. पर मैं तो कोसों दूर गोहाटी में जा छुपी थी, मिलती कैसे? तीन साल मैं वहीं रही, कैसे रही या कैसे रहती हूँ ये ना पूछना, फिर वहाँ से दार्जिलिंग चली गई, फिर काठगोदाम, फिर देहरादून. और इसी चक्कर में आज यहाँ, तुम्हारे देस नोहर में बैठी हूँ.”
“अपने माँ-बाप से भी नहीं मिली तुम? और तुम्हारी बिटिया राजराजेश्वरी, वो कहाँ है?”
“मेरे पास कोई राजराजेश्वरी नहीं रहती बाई. नर्मदा, मेरी बेटी, को मैंने दार्जिलिंग के एक क्रिस्तान (मिशनरी) स्कूल में डाल दिया था. आज वो कलकत्ता में कम्पुटर की पढाई कर रही है. वो खुद भी वहां टूशन पढ़ाती है और अपना खर्चा निकाल लेती है. जरूरत हो तो मुकुल भैया से कह के हम पैसा भिजवा देती हैं. उसको मोबाइल दिला रखा है, कभी-कभी मैं ही बात कर लेती हूँ, कभी मिल भी आती हूँ पर उसे कभी नही बुलाती. अम्मा-कक्का तो अब रहे नहीं पर बेटी की कोसिस से ही पांचेक बरस से भाई-भाभी की खबर है मुझे. वो राक्षस अब भी बेटी के लिए मारा-मारा फिरता है, रातों को रोता-चिल्लाता है, दारू के नशे में सिर फोड़ता है, वोही लोग तो बताते हैं मुझे. और सच्ची कहती हूँ बाई, मेरे कलेजे में हर बार एक नई ठंडक पहुंचती है. सुरसती के गाल चांदनी में भी दहक रहे हैं और खिली चांदनी सी शफ्फाक आँखों की चमक में एक आंच सी कौंध रही है. “उसे भी मालूम पड़ रहा है कि माँ-बाप से उसका बच्चा छीन लेना क्या होता है. उसने मेरे माँ-बाप के बच्चों को छीना मैंने उस की बच्ची. उसने मेरे प्रेम को दरबदर किया, मैंने उस के इस रूप को. मेरी ज़िन्दगी उजाड़ के वो भी राज़ी तो नहीं ही रहा.”
“तुम खतरनाक हो भाभी.” मैंने मजाक किया. “लेकिन तुम तो दूसरी शादी भी करने वाली हो न, इस बार अपनी पसंद की. कौन है वो?”
“मानसिंग, मेरा मंगेतर.” सुरसती ने एक और स्केम ओपन किया.
“लेकिन वो तो उसी समय हट गया था न, या वो तुम्हारे साथ ही... ?” ओह, तो ये माज़रा है. मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगा है.
 “हाँ, हट गया था, कभी नहीं मिला मुझसे. मेरी शादी के बाद ही घर छोड़ के कहीं निकल गया था, तब से किसी को खबर नहीं कि वो कहाँ हैं.” सुरसती ने एक बार फिर मुझे झूठा सिद्ध कर दिया. “पर उस से क्या, कभी तो मिलेगा, आज नहीं तो कल, इस दुनिया में नहीं तो भगवान के घर, मेरी आस में कोई कमी नहीं, जाने वो कब मिल जाए ये सोच के ही मैं कभी फीका कपड़ा नहीं पहनती कि मिलते ही उस से ब्याह कर लूँगी. जिसकी जमीन है उसे तो सौंपनी ही है ना बाई.” धरती, सच ये स्त्री धरती सी सर्वरूप, दृढकोमलांगी और आत्मसंपन्न है, जो देना न चाहे तो कोई माई का लाल इससे कुछ नहीं ले सकता चाहे मर ही क्यों न जाये. ”चलती हूँ बाई, जिन्दगी रही तो जरूर मिलूंगी, सुरसती हाथ जोड़ के उठ गई. “पर कल से से मैं अकाल मौत मर जाऊं तो मेरी कहानी जरूर लिखना. और हाँ, दुख भी नहीं मनाना. बेटी अब बड़ी हो गई है, उसे मैंने खूब पढ़ा-लिखा के मजबूत बना ही दिया है तो क्या दुख-चिंता करनी हुई बाई. चलती हूँ मुकुल भैया.” सुरसती ने बरामदे में खड़े मुकुल भैया को हाथ जोड़े, मेरी और स्नेहसिक्त मुस्कान डाली और निकल गई. चांदनी के धुंधले उजाले में जाती हुई सुरसतिया किसी शापित, निर्वासित देवदूत की आत्मा सी दीख रही है और पिता जी के कमरे के रेडियो से बजते गीत की पंक्तियाँ मानों उसे सलामी दे रही है...’इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय, पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई मांय...’**

**राजस्थानी कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की प्रसिद्ध काव्य-पंक्तियाँ जिसमें वीर प्रसूता माँ अपने पुत्र को पालने में झुलाती हुई सीख देती है कि अपनी जमीन किसी को नहीं लेने देनी चाहिए, इस के लिए लड़ते हुए अगर मृत्यु भी मिले तो वह प्रशंसनीय होगी.