Wednesday, August 15, 2012


मित्रो, फिर आ गाया हमारा स्वतंत्रता दिवस .हमारी आज़ादी का पैंसठवा वर्ष. मैं स्वतंत्र देश की हूँ नागरिक हूँ , ये अनुभूति ही अपने आप में सुखद गौरव से भर देती है,मन हर्षित तन रोमांचित कर देती है. सतंत्रता....आहा,क्या चीज है , अपना देश अपना घर एक ही बात है.आज़ादी का मज़ा तो सब जगह ही है ना. चाहे जहाँ ,मनचाहा व्यवहार करूँ,मैं स्वतंत्र हूँ भाई .,कहीं वाहन खड़ा करूँ.चौराहे की लाल बत्ती की परवाह किये बिना स्वतंत्र भाव से सड़कों पर विचरण करूँ,कोई रोकने वाला कौन? ये मेरा आज़ाद देश है...पान खा के पीक कहीं थुकुं,कहीं कचरा फेंकूं.किसी जगह पर भी.(पुरुष होती तो अन्य शंकाएँ भी निश्चिन्त मन से निवृत कर लेती.) और हाँ,अभिव्यक्ति की आज़ादी है,तो जोर से बोलने,लाउडस्पीकर चलाने,सड़को पर रात भर भजन कीर्तन करने से कोई क्यों रोके मुझे.सड़क खोद के पंडाल बनाते समय भी तो यही भाव मन में रहता है कि घर के काज-बिरद पे घर में ही तो पंडाल लगायेंगे ना. और सड़क पे काज तो सड़क के खम्बे की बिजली,इस में किसी का जी क्यों जले भाई. और पशुधन वो मेरा सो देश का....हम तो भाई हैं ही पशुधन प्रमुख देश के वासी ,तो जहाँ में रहूँ वहाँ मेरे डंगर भी तो रहेंगे.हम सब एक साथ,सहकार की भावना से सड़कों पर भी रहते है,कितना अच्छा लगता है.सड़क पर सब को आराम से रहने खाने ,सोने और निवृति की भी आज़ादी. पर मुझे एक ही बात समझ नहीं अति कि कुछ लोगों को जाने क्यों ये आज़ादी अच्छी नहीं लगती. खुद भी दुखी रहते हैं और हमें भी दुखी करते हैं. पैसठ वर्षों में भी उन्होंने आज़ादी को जीना नहीं सीखा....कतार में लगो,यहाँ ऐसे मत बैठो,वहाँ ये मत डालो...हुंह ..........तुम रहो उन मुए अंग्रेजों की आदत के गुलाम हम तो आज़ाद हैं और आप सब भी आज़ाद हो.हमारी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कटिबद्ध हम सब मिल के बोलें ....................... स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है....भारत माता की जय. ......... जय , जय ,जय जय ..हे

Thursday, June 7, 2012

पिछले कई दिनों से राजस्थान साहित्य अकादमी की गृह पत्रिका 'मधुमती' के कहानी अंक को ले कर तूफ़ान बरपा हुआ है. कारण? वही कारण जो शाश्वत कारण बनता है,कहानियों पर अश्लीलता का आरोप.यानि जो मधुमती शहद सी सात्विक मधुमती थी वो हाला का प्याला परोसती मादक मधुमती हो गई है. बहुत हंगामा हो गया और खबरची बंधुओं की और से टिप्पणी की मांग होने पर हम ने भी पढना चाहा मालूम हुआ मांग इतनी बढ़ गई है कि बाजार से गायब है,गजब. खैर बात करनी थी तो आवश्यक था कि पढ़ा जाए.किसी तरह जुटाई और मन मारकर पढ़ी. यहाँ 'मनमार कर पढ़ी,' मैं किसी नैतिक आडम्बर के साधू भाव से नहीं लिख रही हूँ बल्कि एक प्रताड़ित पाठक की तरह लिख रही हूँ जिसे उन कहानियों को पढना पड़ा. सच तो यही है कि उनमे से अधिकाँश कहानियाँ या तो स्तरहीन हैं या पूर्व प्रकाशित. श्लील-अश्लील के मुद्दे को हटा दें तो भी यह अंक पुरानी तर्ज़ पर कहें तो 'अकहानी अंक' सॉरी, 'बुरी कहानी अंक' है. खैर मुझे जो बात कहनी है वो शायद बहुत से लोगों को पसंद ना आये. लेकिन क्या साहित्य में किसी भी कृति को अश्लील कह के खारिज कर देने के पहले हमें एक बौद्धिक साहित्यक दृष्टी से नहीं सोचना चाहिए. क्या हम किसी भी रचना का मानदंड निर्धारित करते समय लेखक की मंशा और कहानी की संवेदना की मंशा को समझने की जरूरत नहीं होती कि अपनी कथा संवेदना और चरित्रों के साथ न्याय करते हुए लेखक यदि कोइ विशेष भाषा या ब्योरे देता है तो वह सदैव गलत ही होगा. यदि ऐसा है तो निरस्त कर देना चाहिए कालिदास को, जायसी के पद्मावत को और मंटो को भी.क्योंकि वो भी इसी घेरे में आती हैं. लेकिन ये सब मैं मधुमती की कहानियों 'संशय',विस्मरणीय' और 'सलीब पर' के पक्ष में नहीं लिख रही हूँ,उक्त सारी कहानियां दृष्टीहीन अतार्किक रूप से रची हैं जिन्हें सच में अश्लील कहा जा सकता है. लेकिन इस सारे हंगामे में मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी (जो कि पूर्व प्रकाशित तो है ही) 'कालिंदी' भी लपेटे में आगई है.उस पर भी अश्लीलता का आरोप है. मुझे लगता है यह एक संवेदनशील विषय पर लिखी सशक्त कहानी है.जो एक अकेली माँ के संघर्षशील और सही अर्थो में आधुनिक चरित्र को लेकर बुनी गई है.मुख्य पात्र जिस परिवेश से उठ के आये हैं वहाँ ये दृश्य और भाषा कथा को विश्वसनीय बना रही है.इस कहानी का दुर्भाग्य है कि ये इस अंक में आई.

Wednesday, April 4, 2012

फणीश्वर नाथ 'रेणु' जिन्हे पढ़ के ही पहली मर्तबा समझा कि सही अर्थों में आंचलिकता क्या होती है रेणु को पढ़ के सीखा कि कथा की भाषा क्या होती है.वो भाषा से मुक्त भाषा का संसार रचते हैं.जिसमे राग हैं,रंग हैं गीत हैं,चांग है.आप उस भाषा को आँख से देखते हैं,कान से सुनते हैं और कभी कभी धड़कनों से भी. 'मैला आँचल' जो मात्र एक उपन्यास नहीं,कमली और डागदर बाबू की कहानी नहीं, तत्कालीन भारत का धडकता ह्रदय है.'तीसरी कसम' मात्र एक प्रेम कथा नहीं सख्य भाव की बांसुरी पर गूंजती करुण रागिनी है.'लालपान की बेगम' 'पंचलेट'.'ठेस' आदिम रात्रि की महक' वे कहानियां है जो मुझे बेहद प्रिय है.उन्हें हर बार पढने-पढाने में नया आनंद आता है. रेणु के कथा-साहित्य ने जहाँ मेरे साहित्यिक पाठक मन को रस सिक्त किया,कथाकार के रूप में मेरे गुरु का काम किया, मुझे बौद्धिक रूप से समृद्ध किया,मुझे मेरी जड़ों से पहचान करने में मदद की.
और सबसे मजेदार बात-जिसने किशोरावस्था में मेरी बहुत बड़ी उलझन सुलझाई और समझाया कि इस दुनिया में मात्र मैं ही ऐसे लोगों में नहीं हूँ,और भी लोग इस परेशानी से जूझते हैं.वो उनके किसी आत्म कथ्य या संसमरणात्मक लेख की एक पंक्ति है-
"पता नहीं क्यों पर मेरे साथ,कोई भी साधारण घटना,साधारण तरीके से नहीं घटती."
हीरामन रचने वाले हीरामन को सादर नमन.

Wednesday, February 15, 2012

इस फानी जहां में हर शय का आखिरी फ़साना तय है-धीरे-धीरे अतीत होते हुए धुंध में खो जाना.लेकिन इस धुंध में खो जाने के पहले जो 'अतीत' की घटनी है वह सबकी अलग-अलग-नियति है. कुछ 'धुवाँ केरा धोलहर' की तरह पलक झपकते ही बिला जाते हैं तो कुछ अपना प्रारब्ध चक्र पूरा करते है,क्षण-क्षण झरते,बिखरते हुए.और उस दौरान वो बहुत से रूप-रंग भी बदलते हैं जो वहाँ से गुजरते राहगीर को अपने से रूबरू होने के लिए आकर्षित करते हैं,हमें पुकारते हैं कि हम उनसे गुजर के बीती से संवाद करें.बाहँ पकड़ कर खींच लेते हैं वो कि अपने अवशेष होते जा रहे वर्तमान को हम कुछ देर के लिए ही सही पर जियें.
मित्रो,कुछ ऐसा ही धीरे-धीरे धुंध में खोता ये फ़साना है 'मालपुरा का रेलवे स्टेशन',बीसीयों साल होते आए इस स्टेशन को भूतपूर्व स्टेशन हुए.जहाँ कभी पटरियों पर रेल दौड़ा करती थी अब वहाँ बीसलपुर जल परियोजना के पाईप,और उसके ऊपर डामर की सड़क बिछी है,यात्री वहाँ से अब भी गुजरते हैं,पर मोटर से.न पटरियां रही न उन पर से गुजरने वाली रेल अब आती है.किन्तु ये स्टेशन अब भी वहीँ खड़ा है,अपने होने और ढहने के बीच के वर्तमान को जीता हुआ.अंग्रेजों के ज़माने की, उन्ही के स्थापत्य के अनुरूप बनी ये इमारत अपने एकांत और उपेक्षा के दर्द से धीरे-धीरे काली पड़ती जा रही है,टूटती जारही है.खुद को उसने बबूल और ऐसी ही दूसरी स्थानीय झाडियों के झुरमुट में लगभग छुपा भी लिया है.लेकिन मैंने जिस दिन से उसके पास से आना जाना शुरू किया है जाने क्यों वो मुझसे अपनापा जोड़ बैठी है.पहले ही दिन उसने मुझे धीरे से टहोका- 'आओ,मैं भी हूँ.' मैंने देखा तो मुझे लगा कि हाँ,जाना तो चाहिए.लेकिन गमे दुनिया के लिए भागते कदम गमे जानाँ के लिए रुकने की फुरसत कहाँ पाते है.आज भेटू,नहीं कल भेटून्गी.के तर्के उसको और खुद को देती रही.दिन प्रतिदिन उसकी मनुहार को 'कल' कह के टालती रही. लेकिन वो भी जहां-रसीदा सखी है,समझ गई कि ये माया की मारी ऐसे नहीं ही आएगी तो कल उसने गाड़ी के घुटने पकड़ कर जबरन रोक लिया.और हाथ पकड़ के समेट लिया खुद के तार-तार हो रहे बोसीदा दामन में.जहाँ अब भी मुसाफिरखाना है किन्तु ठहराने वाले मुसाफिर बदल गए हैं.मनुष्यों के आलावा तमाम मुसाफिर हैं वहाँ.किन्तु इधर-उधर बिखरी शराब की बोतले और मिटटी की हांडी में पके मांस के अवशेष कह रहे थे कि रात में इंसान भी आते हैं शायद. विद्युतहीन समय में कभी जिस 'दीपघर' में रात को दीप जगमगाया करते थे अब वो अपनी अकेली रातों के अँधेरे से काला पड़ गया है.और जिस टिकिट खिडकी पर मुसाफिरों की कतार और चहलपहल रहा करती होगी अब निपट सूनी पड़ी है.हाँ,वहाँ लिखे नियम कायदे समय की मार से खुद को बचा के रखे हुए हैं. उनके साथ ही कुछ नए नियम और सूचनाएं कुछ शरारती तत्वों ने और जोड़ दिए हैं जो (इस चित्र में) साफ़ पढ़े जा सकते हैं .इन में एक बहुत ही आकर्षक और मेरी वर्षों से संचित कमाना को पूरा करने वाली थी-"यहाँ भूत रहते हैं."य बात अलग है कि पुकारने पर भी उन्होंने मुझे दीदार नहीं दिया.हाँ,उसकी टिकिट खिडकी पर खड़े होके मैंने 'अतीतपुर' गाँव एक ऐसा टिकिट लिया जिसकी यात्रा मैं पहले कर आई थी.और ये बे टिकिट का सफर मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव रहेगा.
शुक्रिया मेरे दोस्त कि तुमने मुझे तुम्हारे बहाने एक पूरी सदी से,उसकी परंपरा से यानि मेरी अपनी जड़ों से और खुद स्वयं से मुझे मिलवाया

Sunday, January 15, 2012

होना अदम का हमारे मुल्क में.

'' देखना,सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं,
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए.''
ये है अदम गौंडवी,एक फटकारती दहाड़,बेलोस भाषा दबंग तेवर का कवि.पर ये होना आसान नहीं,बहुत दुश्वार है,रामनाथ सिंह के लिए भी नहीं रहा होगा,पर चेतना की वो दुर्निवार आंच जो भीतर खदकती,सीझती-सिझाती रहती है,वो किसी भी भय,किसी भी प्रतिरोध से बाधित हुए बिना कभी कबीर तो कभी रामनाथ सिंह की 'अदम गौंडवी' रुपी आवाज़ में चौक-चौराहों,खेत-खलिहानो में अनहद की हद तक गूंज उठती है.
मात्र दो गज़ल-संकलनों में अदम ने हमारे सारे सामाजिक यथार्थ को,उसकी बेईमान सच्चाइयों को बेबाक अंदाज़ में हमारे सामने आईने की तरह रख दिया है.निर्व्याज-निरपेक्ष पठनीयता के साथ.
अदम गौंडवी की कलम आम अवाम की भाषा है,वही उसका कथ्य है और वही उसका कलेवर.
"कोई भी सरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले,
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है"
हमारी खाँटी ग्राम्य-देशीयता से,अपने परिवेश के सरोकारों से जुडाव को उकेरते जितने व्यापक और और गहरे चित्र अदम की ग़ज़लों में हैं अप्रतिम हैं.आम आदमी को,उसके जीवन को सहजीवन की तरह जीना क्या होता है यह अदम की गज़लों से समझा जा सकता है.अदम अपने समय से मुठभेड़ करते आदमी के प्रतिनिधि के रूप में सुसंस्कृत भद्र नागरी साहित्य संवेदना की जगह गंवई चेतना को तरजीह देते हैं और साफ़ कहते हैं-
गज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में,
मुसलसल फन का दम घुटता है अब अदबी इजारों में."
अदम साहब ने अपनी बात कहने के लिए भी ठेठ गंवई,दो टूक,बेतकल्लुफ,भाषा का औजार ही बरतते है,उस के पक्ष में खुलकर बोलते हैं.कविता की सजी संवारी बनावटी भाषा के लिए आक्रामक विरोध के तेवर में "जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को,किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये." कहना अदम को अदम बनाता है.यह अदम की कलम का वह देशज आधुनिक सच है जिसे अकादमिक जमात मार्क्स के साम्यवाद का पक्षधर कहती है किन्तु जिससे सही अर्थों में सरोकार न सरकार को है न तथाकथित सभी समाज को.किन्तु अदम ने जो देखा उसे ही न केवल अपना कथ्य बना बल्कि जीवन भी बनाया.वे ताउम्र उसी आम आदमी के साथ,उसी की तरह ,उसी के लिए जीते लड़ते रहे.अदम की शायरी और जीवन में कथनी-करनी का अंतर जरा भी नहीं रहा. लोक और उसके संघर्षों के साथ जीते हुए लिखने का ये गुण ही अदम को कबीर की दबंगता,नजीर की लोक-चेतना और दुष्यंत कुमार का सहज आम जन सुलभ विश्वसनीय अंदाज़ देता है.उनकी गज़ल लोक से निकले क्रांति गीत हैं.जिसमे वे अदीबों,नेताओं,बुद्धिजीवियों,शोषकों पर तो करारा प्रहार करते ही हैं गज़ल में आम प्रचलित इश्को-माशूक के अफसानों को भी भूख की खुरदुरी जमीन पर नकार देते हैं-"गार्न रोटी की महक पागल बनाती है मुझे,पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करूँ."
आज अदम हमारे बीच नहीं रहे,जिस गरीबी और शोषण के विरूद्ध वे सारा जीवन लड़ते-बौलते रहे वही उनके जीवन के अंत समय उनकी त्रासद नियति के रूप में उनके साथ रही और उन्हें ले भी गयी.हम सब ,तथाकथित संवेदनशील.बुद्धिजीवी वर्ग न कुछ कर पाए न वो सरकार जिसके देश के लिए उनकी गज़लें विरासत हैं.किन्तु अदम को इस स्थिति का आभास था तभी तो वो एक जगह लिखते हैं.-"चाँद है जैरे कदम,सूरज खिलौना हो गया,हाँ,मगर इस देश में किरदार बोना हो गया."
आज हमारे बीच वो आवाज़ नहीं रही किन्तु उनकी कलम से निकली गज़ल रुपी चिंगारी आज भी हमारे बीच है जो हमें याद दिलाती रहेगी-
"जनता के पास एक ही चारा है बगावत,ये बात कह रहा हूँ मैं होशोहवास में."