Wednesday, February 15, 2012

इस फानी जहां में हर शय का आखिरी फ़साना तय है-धीरे-धीरे अतीत होते हुए धुंध में खो जाना.लेकिन इस धुंध में खो जाने के पहले जो 'अतीत' की घटनी है वह सबकी अलग-अलग-नियति है. कुछ 'धुवाँ केरा धोलहर' की तरह पलक झपकते ही बिला जाते हैं तो कुछ अपना प्रारब्ध चक्र पूरा करते है,क्षण-क्षण झरते,बिखरते हुए.और उस दौरान वो बहुत से रूप-रंग भी बदलते हैं जो वहाँ से गुजरते राहगीर को अपने से रूबरू होने के लिए आकर्षित करते हैं,हमें पुकारते हैं कि हम उनसे गुजर के बीती से संवाद करें.बाहँ पकड़ कर खींच लेते हैं वो कि अपने अवशेष होते जा रहे वर्तमान को हम कुछ देर के लिए ही सही पर जियें.
मित्रो,कुछ ऐसा ही धीरे-धीरे धुंध में खोता ये फ़साना है 'मालपुरा का रेलवे स्टेशन',बीसीयों साल होते आए इस स्टेशन को भूतपूर्व स्टेशन हुए.जहाँ कभी पटरियों पर रेल दौड़ा करती थी अब वहाँ बीसलपुर जल परियोजना के पाईप,और उसके ऊपर डामर की सड़क बिछी है,यात्री वहाँ से अब भी गुजरते हैं,पर मोटर से.न पटरियां रही न उन पर से गुजरने वाली रेल अब आती है.किन्तु ये स्टेशन अब भी वहीँ खड़ा है,अपने होने और ढहने के बीच के वर्तमान को जीता हुआ.अंग्रेजों के ज़माने की, उन्ही के स्थापत्य के अनुरूप बनी ये इमारत अपने एकांत और उपेक्षा के दर्द से धीरे-धीरे काली पड़ती जा रही है,टूटती जारही है.खुद को उसने बबूल और ऐसी ही दूसरी स्थानीय झाडियों के झुरमुट में लगभग छुपा भी लिया है.लेकिन मैंने जिस दिन से उसके पास से आना जाना शुरू किया है जाने क्यों वो मुझसे अपनापा जोड़ बैठी है.पहले ही दिन उसने मुझे धीरे से टहोका- 'आओ,मैं भी हूँ.' मैंने देखा तो मुझे लगा कि हाँ,जाना तो चाहिए.लेकिन गमे दुनिया के लिए भागते कदम गमे जानाँ के लिए रुकने की फुरसत कहाँ पाते है.आज भेटू,नहीं कल भेटून्गी.के तर्के उसको और खुद को देती रही.दिन प्रतिदिन उसकी मनुहार को 'कल' कह के टालती रही. लेकिन वो भी जहां-रसीदा सखी है,समझ गई कि ये माया की मारी ऐसे नहीं ही आएगी तो कल उसने गाड़ी के घुटने पकड़ कर जबरन रोक लिया.और हाथ पकड़ के समेट लिया खुद के तार-तार हो रहे बोसीदा दामन में.जहाँ अब भी मुसाफिरखाना है किन्तु ठहराने वाले मुसाफिर बदल गए हैं.मनुष्यों के आलावा तमाम मुसाफिर हैं वहाँ.किन्तु इधर-उधर बिखरी शराब की बोतले और मिटटी की हांडी में पके मांस के अवशेष कह रहे थे कि रात में इंसान भी आते हैं शायद. विद्युतहीन समय में कभी जिस 'दीपघर' में रात को दीप जगमगाया करते थे अब वो अपनी अकेली रातों के अँधेरे से काला पड़ गया है.और जिस टिकिट खिडकी पर मुसाफिरों की कतार और चहलपहल रहा करती होगी अब निपट सूनी पड़ी है.हाँ,वहाँ लिखे नियम कायदे समय की मार से खुद को बचा के रखे हुए हैं. उनके साथ ही कुछ नए नियम और सूचनाएं कुछ शरारती तत्वों ने और जोड़ दिए हैं जो (इस चित्र में) साफ़ पढ़े जा सकते हैं .इन में एक बहुत ही आकर्षक और मेरी वर्षों से संचित कमाना को पूरा करने वाली थी-"यहाँ भूत रहते हैं."य बात अलग है कि पुकारने पर भी उन्होंने मुझे दीदार नहीं दिया.हाँ,उसकी टिकिट खिडकी पर खड़े होके मैंने 'अतीतपुर' गाँव एक ऐसा टिकिट लिया जिसकी यात्रा मैं पहले कर आई थी.और ये बे टिकिट का सफर मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव रहेगा.
शुक्रिया मेरे दोस्त कि तुमने मुझे तुम्हारे बहाने एक पूरी सदी से,उसकी परंपरा से यानि मेरी अपनी जड़ों से और खुद स्वयं से मुझे मिलवाया