Monday, September 26, 2011

रजा रानी ..खतम कहानी.

बादल,बरखा,सावन,पानी,इक दिल राजा इक दिल रानी

सुने सुनाये प्रेम कहानी,

तुझ बिन इश्क मेरा नाकारा बिन मेरे क्या तेरी जवानी,

मैं हूँ इश्क हकीकी तेरा,तू है इश्क मेरा रूहानी,

तू गंगाजल मुझ दरिया में,मैं तेरे दरिया में फानी,

लेकिन कभी-कभी मेरे घर एक नया किस्सा होता है,कभी नहीं अक्सर होता है...

घर के टीन कनस्तर सारे, लड़ते मुझसे मेरे ही घर,बेढब सुर में कर्कस बानी,

अरे अभागे,सुन बे निकम्मे,मर गया क्या आँखों का पानी?

तुझे नहीं दिखते है क्या ये सूना चौका,खाली बर्तन,सूने नल का सुखा पानी?

देख जरा नादीदे पल भर,तुझे कभी नहीं दिखती क्या ये

फटी गूदडी,टूटी हांड़ी,ठंडा चूल्हा,कौड़ी कानी

हम सब से भी प्रेम कभी कर.

हम भी तेरे घर रहते है,तू तो नहीं पर हम सहते है.

बहुत सुन लिए तेरे नगमे, तेरी हीरें,तेरे ढोले,अगडम बगडम प्रेम कहानी,

बाहर निकल, हो दफा यहाँ से,संग ले अपने राजा-रानी.

Saturday, September 24, 2011

वह अद्भुत दोपहत अजातशत्रु के साथ.

अजातशत्रु,एक ऐसा नाम जो बचपन से बड़े लेखक के रूप में पढ़ा-जाना था एक सशक्त व्यंगकार और उस के बाद हिंदी सिनेमा और विशेषकर उनके गीतों के पारखी टीकाकार के रूप में.लता जी और आशा भोसले पर लिखित उनकी पुस्तकें भी पढ़ी थी किन्तु कभी उनसे सीधा परिचय नहीं हुआ था.पिछले वर्ष की बात है,एक दोपहर एक अपरिचित न. के साथ फोन घनघनाया.उठाने पर एक भारी गंभीर और जल्दबाज़ आवाज़ आई-"लक्ष्मी बोल रही हो?"
मेरे 'जी' कहने के पहले ही उधर से आवाज़ आई-"मैं अजातशत्रु बोल रहा हूँ." मैं चकित हो सकूँ उसके पहले ही दोबारा वही स्वर-"मैंने तुम्हारी कहानी 'खतेमुतवाजी' पढ़ी,लड़की क्या लिखती हो,और मैं इतना लापरवाह कि अब तक तुम्हे पढ़ा ही नहीं....." उसके बाद खतेमुतवाजी पर जो और जितना उन्होंने कहा वो लिखना व्यर्थ है क्योंकि उन्हें खतेमुतवाज़ी पर बात करना ही भा रहा था सुनना नहीं,ये मैं समझ चुकी थी.खैर,उसके बाद मालूम हुआ कि मेरे अग्रज से उनका मेलजोल हैं( सुमन चौरसिया के द्वारा) और वो उन दिनों इंदौर के पास पिगडंबर में सुमन भैया के घर रह कर ही हिंदी सिनेमा के गीतों पर अगली पुस्तक पर कार्य कर रहे हैं और मेरे इंदौर प्रवास के दौरान भी पिगडंबर रहेंगे.चूंकि संपादक हूँ तो तुरंत व्यावहारिक बुद्धि जागृत हुई कि लगे हाथों एक साक्षात्कार उनका 'अक्सर' के लिए ले लिया जाये.सो फ़ौरन प्रश्न तैयार किये और समय लेकर भाई के साथ पिगडंबर पहुँच गई.मुझे अच्छी तरह याद है 26 जनवरी की वो ढलती दोपहर,पहले भी सुमन जी के यहाँ जा चुकी थी फिर भी इस बार अजात जी के नाम के कारण मन में तनिक भय मिश्रित हिचकिचाहट लिए ऊपर चढ़ी,आगे भाई,पीछे मैं.सीढी चढते ही सामने सीधी दृष्टि पडी जमीन पर बिछे आसन पर अपना पोथी-पत्रा फैलाये एक दीर्घकाय सहज फक्कड मस्ती से बैठे प्रभावी व्यक्तित्व पर,'तो ये हैं प्रोफ़ेसर आर.एस.यादव जो अंग्रेजी के शिक्षक हैं और प्रसिद्द व्यंगकार तथा सिनेमाई आलोचक अजातशत्रु के नाम से जाने जातें है.किन्तु यहाँ सूफियाना मलंग सा बाना ओढ़े जो बैठा हैं वो कतई आतंकित नहीं करता.पर उन्हें देख के जितना मैं चौंकी शायद वो भी उतना ही चौंके,-"आओ लक्ष्मी" उन्होंने सहज भाव से कहा पर दूसरा वाक्य अपनी परिचित उतावली सी भंगिमा में तुरंत भैया को-"यार,तूने बताया नहीं मैं तो ऐसे ही ...."कहते हुए उन्होंने कुरते पर शाल ओढ़ ली.ईमानदारी से उस क्षण मुझे बहुत शर्म आई अपने आसमानी अनारकली सूट और स्टाइलिश सफ़ेद स्वेटर पर.और अगले ही क्षण उनके एक वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी.-"मुझे लगा खते मुतवाजी लिखने वाली,हिंदी की लेक्चरर डॉ लक्ष्मी शर्मा कोई ....आजा बैठ बेटा"
'हे ईश्वर, क्या मैं कतई पढ़ीलिखी शिक्षक नहीं लगती?' मैं दूसरे वाक्य से और भी अकबका गई पर उनके अंतिम वाक्य के स्नेह का सहारा लेकर बैठ गई.फिर कितनी बातें हुई, अधिकांश उन्होंने कही मैंने सुनी.बोलने का मन भी नहीं कर रहा था और उनकी बातों में अवकाश भी नहीं था.भाई मुझे नहीं,मैं ही उन्हें डाटती हूँ सुन कर वे चकित हुए,मैं सत्रह वर्षों से पढ़ा रही हूँ सुन कर वे फिर चकित हुए.कितनी बातें की हमने -सिनेमा पर,उनके गीतों पर,वर्तमान व्यंग पर,अंग्रेजी साहित्य पर और उनकी पसंदीदा कहानी 'खते मुतवाजी' और मेरी सद्य प्रकाशित चर्चित प्रशंशित कहानी 'मोक्ष' पर भी. मोक्ष के लिए उनका स्पष्ट मत था कि-"तूने एक बहुत अच्छी कहानी को बिगाड़ दिया,भजन मामी पर एक बलात्कार ठाकुर ने किया और दूसरा तूने." और मैं भूल गई कि मुझे उनका साक्षात्कार लेना है,जिसके लिए मैंने मेहनत से प्रश्न बनाये है और यहाँ तक आई हूँ.बस देखती रही उनके सरल-सहज व्यक्तित्व को.उनकी बातें सुनती रही और गुनती रही उस ज्ञान को जो बौद्धिकता से ऊपर उठ कर आध्यात्मिक ऋजुता में परिवर्तित हो गया है जो लिखित शब्दों को दो कोड़ी का मान के ख़ारिज कर रहा है,जो स्फोट के पीछे छुपे अर्थ को साधने और सुनने गुनने की बात कर रहा है.
लेकिन एक चीज थी जो मुझे लगातार खटक रही थी.उनके हाथ में एक कागज की पुडिया सी थी जिसमे रखी तम्बाखू को वे हर पांच मिनट के अंतराल पर खा रहे थे.मुझे आश्चर्य था कि कोई इतनी जल्दी-जल्दी तम्बाखू कैसे खा सकता है,पर चुप किये बैठी रही.इसी बीच उनकी पुत्री-दामाद भी मिलने आये और लौट गए.मुझे भी समय का भान हो रहा था कि अब चलना चाहिए किन्तु....अचानक अजात जी ने कहा-"अब तुम लोग भी जाओ,ठण्ड बढ़ने लगी है"
और उस क्षण में,अचानक मुझे न जाने क्या हुआ कि मैं महज दो घंटे के परिचित व्यक्ति,उस वरिष्ठ विद्वान के सामने जिससे में अब तक ज्यादा बोल भी नहीं पा रही थी,के समक्ष धृष्ट हो उठी-"जाउंगी, किन्तु इस को लेकर."मेरा इशारा उस पूडियाँ की और था.सुनते ही अजातशत्रु,सुमन चौरसिया,और भैया तीनों स्तब्ध...किन्तु मेरी बात जिद की तरह अड़ी रही-"और ये वादा भी कि अब आप ये नहीं खायेंगे. भाई मेरी हठधर्मी जानते हैं किन्तु इस रूप की उन्हें भी कतई आशा नहीं थी,सुमन जी भी जड़वत खड़े थे.कुछ पल के मौन के बात अजात जी ने ही कहा-"नहीं,खाऊंगा,अब तू जा." आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि कैसे मैं घुटनों के बल उन के समक्ष बैठ कर ये कह सकी "तो मेरे सर पर हाथ रख के कह दीजिए." एक गहन मौन के अंतराल के बाद उनका हाथ मेरे सर पर था."आज के बाद कभी नहीं खाऊंगा,जो कोई नहीं कर सका वो तूने कर लिया,आज,इस घडी में मेरी माँ है तू," रुंधे गले और भीगी आँखों से उन्होंने कहा और तम्बाखू की पुडिया मेरे सामने पटक दी."अब तू जा."
नीचे आकर भाई हंसी से दोहरा गए,"चलो,अब ये तो पक्का हो गया कि दादागिरी मैं नहीं,तू ही करती है मुझ पर." किन्तु मैं न कुछ कह पा रही थी न सुन रही थी,एक शून्य स्तब्धता मुझ पर आच्छादित थी.कुछ-कुछ शर्म भी आ रही थी,ये क्यों और किस अधिकार से किया मैंने.किसी की बरसों पुरानी आदत इस तरह से छुडाने की जिद करना निश्चय ही अत्याचार है और अगर न छोड़ सके तो मेरी बात की और मेरी कितनी भद्द पिट जायेगी सुमन जी और भाई दोनों की निगाह मैं.
उसके बाद मैं वापस जयपुर आ गई,बगैर साक्षात्कार लिए किन्तु बहुत कुछ अपनी स्मृतियों में लिए.
आने के दो दिन बाद मैंने उन्हें शिष्टाचार फोन किया और उधर से आये पहले वाक्य ने ही मुझे नम कर दिया-"लक्ष्मी,मैंने तम्बाखू नहीं खाई और न कभी खाऊंगा."मेरी कृतज्ञता अवाक सुनती रही.
उस के बाद से अब जब भी बात होती है उनका पहला वाक्य यही होता है-"मैंने तम्बाखू नहीं खाई,न आजीवन खाऊंगा.मैं सबको कहता हूँ कि एक लडकी मेरी माँ बन के आई और मेरी तम्बाखू ले गयी.अब मैं उसकी बात कभी छोटी नहीं होने दूँगा.सुमन तो हंस के कहता भी है कि इस तरह से कोई हमें कहता तो हम भी छोड़ देते."
उसके बाद आज तक उनसे मुलाकात नहीं हुई सिर्फ फोन के द्वारा ही हमारी ध्वनियाँ संवाद सेतु है...न जाने अब कब मिले,शायद न भी मिले किन्तु वह अद्भुत क्षण सदैव मेरे साथ रहेगा और मुझे याद दिलाएगा उस सर्द दोपहर के शब्दातीत अनुभव की.उस सरल-सहज स्नेही किन्तु प्रखर व्यक्तित्व की जो स्नेह में दृढ हो जीवन भर में पक चुकी लत को एक झटके मैं छोड़ देता है. सच में वो अजातशत्रु ही हैं.