Thursday, June 7, 2012

पिछले कई दिनों से राजस्थान साहित्य अकादमी की गृह पत्रिका 'मधुमती' के कहानी अंक को ले कर तूफ़ान बरपा हुआ है. कारण? वही कारण जो शाश्वत कारण बनता है,कहानियों पर अश्लीलता का आरोप.यानि जो मधुमती शहद सी सात्विक मधुमती थी वो हाला का प्याला परोसती मादक मधुमती हो गई है. बहुत हंगामा हो गया और खबरची बंधुओं की और से टिप्पणी की मांग होने पर हम ने भी पढना चाहा मालूम हुआ मांग इतनी बढ़ गई है कि बाजार से गायब है,गजब. खैर बात करनी थी तो आवश्यक था कि पढ़ा जाए.किसी तरह जुटाई और मन मारकर पढ़ी. यहाँ 'मनमार कर पढ़ी,' मैं किसी नैतिक आडम्बर के साधू भाव से नहीं लिख रही हूँ बल्कि एक प्रताड़ित पाठक की तरह लिख रही हूँ जिसे उन कहानियों को पढना पड़ा. सच तो यही है कि उनमे से अधिकाँश कहानियाँ या तो स्तरहीन हैं या पूर्व प्रकाशित. श्लील-अश्लील के मुद्दे को हटा दें तो भी यह अंक पुरानी तर्ज़ पर कहें तो 'अकहानी अंक' सॉरी, 'बुरी कहानी अंक' है. खैर मुझे जो बात कहनी है वो शायद बहुत से लोगों को पसंद ना आये. लेकिन क्या साहित्य में किसी भी कृति को अश्लील कह के खारिज कर देने के पहले हमें एक बौद्धिक साहित्यक दृष्टी से नहीं सोचना चाहिए. क्या हम किसी भी रचना का मानदंड निर्धारित करते समय लेखक की मंशा और कहानी की संवेदना की मंशा को समझने की जरूरत नहीं होती कि अपनी कथा संवेदना और चरित्रों के साथ न्याय करते हुए लेखक यदि कोइ विशेष भाषा या ब्योरे देता है तो वह सदैव गलत ही होगा. यदि ऐसा है तो निरस्त कर देना चाहिए कालिदास को, जायसी के पद्मावत को और मंटो को भी.क्योंकि वो भी इसी घेरे में आती हैं. लेकिन ये सब मैं मधुमती की कहानियों 'संशय',विस्मरणीय' और 'सलीब पर' के पक्ष में नहीं लिख रही हूँ,उक्त सारी कहानियां दृष्टीहीन अतार्किक रूप से रची हैं जिन्हें सच में अश्लील कहा जा सकता है. लेकिन इस सारे हंगामे में मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी (जो कि पूर्व प्रकाशित तो है ही) 'कालिंदी' भी लपेटे में आगई है.उस पर भी अश्लीलता का आरोप है. मुझे लगता है यह एक संवेदनशील विषय पर लिखी सशक्त कहानी है.जो एक अकेली माँ के संघर्षशील और सही अर्थो में आधुनिक चरित्र को लेकर बुनी गई है.मुख्य पात्र जिस परिवेश से उठ के आये हैं वहाँ ये दृश्य और भाषा कथा को विश्वसनीय बना रही है.इस कहानी का दुर्भाग्य है कि ये इस अंक में आई.