Wednesday, April 4, 2012

फणीश्वर नाथ 'रेणु' जिन्हे पढ़ के ही पहली मर्तबा समझा कि सही अर्थों में आंचलिकता क्या होती है रेणु को पढ़ के सीखा कि कथा की भाषा क्या होती है.वो भाषा से मुक्त भाषा का संसार रचते हैं.जिसमे राग हैं,रंग हैं गीत हैं,चांग है.आप उस भाषा को आँख से देखते हैं,कान से सुनते हैं और कभी कभी धड़कनों से भी. 'मैला आँचल' जो मात्र एक उपन्यास नहीं,कमली और डागदर बाबू की कहानी नहीं, तत्कालीन भारत का धडकता ह्रदय है.'तीसरी कसम' मात्र एक प्रेम कथा नहीं सख्य भाव की बांसुरी पर गूंजती करुण रागिनी है.'लालपान की बेगम' 'पंचलेट'.'ठेस' आदिम रात्रि की महक' वे कहानियां है जो मुझे बेहद प्रिय है.उन्हें हर बार पढने-पढाने में नया आनंद आता है. रेणु के कथा-साहित्य ने जहाँ मेरे साहित्यिक पाठक मन को रस सिक्त किया,कथाकार के रूप में मेरे गुरु का काम किया, मुझे बौद्धिक रूप से समृद्ध किया,मुझे मेरी जड़ों से पहचान करने में मदद की.
और सबसे मजेदार बात-जिसने किशोरावस्था में मेरी बहुत बड़ी उलझन सुलझाई और समझाया कि इस दुनिया में मात्र मैं ही ऐसे लोगों में नहीं हूँ,और भी लोग इस परेशानी से जूझते हैं.वो उनके किसी आत्म कथ्य या संसमरणात्मक लेख की एक पंक्ति है-
"पता नहीं क्यों पर मेरे साथ,कोई भी साधारण घटना,साधारण तरीके से नहीं घटती."
हीरामन रचने वाले हीरामन को सादर नमन.