Sunday, January 15, 2012

होना अदम का हमारे मुल्क में.

'' देखना,सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं,
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए.''
ये है अदम गौंडवी,एक फटकारती दहाड़,बेलोस भाषा दबंग तेवर का कवि.पर ये होना आसान नहीं,बहुत दुश्वार है,रामनाथ सिंह के लिए भी नहीं रहा होगा,पर चेतना की वो दुर्निवार आंच जो भीतर खदकती,सीझती-सिझाती रहती है,वो किसी भी भय,किसी भी प्रतिरोध से बाधित हुए बिना कभी कबीर तो कभी रामनाथ सिंह की 'अदम गौंडवी' रुपी आवाज़ में चौक-चौराहों,खेत-खलिहानो में अनहद की हद तक गूंज उठती है.
मात्र दो गज़ल-संकलनों में अदम ने हमारे सारे सामाजिक यथार्थ को,उसकी बेईमान सच्चाइयों को बेबाक अंदाज़ में हमारे सामने आईने की तरह रख दिया है.निर्व्याज-निरपेक्ष पठनीयता के साथ.
अदम गौंडवी की कलम आम अवाम की भाषा है,वही उसका कथ्य है और वही उसका कलेवर.
"कोई भी सरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले,
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है"
हमारी खाँटी ग्राम्य-देशीयता से,अपने परिवेश के सरोकारों से जुडाव को उकेरते जितने व्यापक और और गहरे चित्र अदम की ग़ज़लों में हैं अप्रतिम हैं.आम आदमी को,उसके जीवन को सहजीवन की तरह जीना क्या होता है यह अदम की गज़लों से समझा जा सकता है.अदम अपने समय से मुठभेड़ करते आदमी के प्रतिनिधि के रूप में सुसंस्कृत भद्र नागरी साहित्य संवेदना की जगह गंवई चेतना को तरजीह देते हैं और साफ़ कहते हैं-
गज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में,
मुसलसल फन का दम घुटता है अब अदबी इजारों में."
अदम साहब ने अपनी बात कहने के लिए भी ठेठ गंवई,दो टूक,बेतकल्लुफ,भाषा का औजार ही बरतते है,उस के पक्ष में खुलकर बोलते हैं.कविता की सजी संवारी बनावटी भाषा के लिए आक्रामक विरोध के तेवर में "जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को,किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये." कहना अदम को अदम बनाता है.यह अदम की कलम का वह देशज आधुनिक सच है जिसे अकादमिक जमात मार्क्स के साम्यवाद का पक्षधर कहती है किन्तु जिससे सही अर्थों में सरोकार न सरकार को है न तथाकथित सभी समाज को.किन्तु अदम ने जो देखा उसे ही न केवल अपना कथ्य बना बल्कि जीवन भी बनाया.वे ताउम्र उसी आम आदमी के साथ,उसी की तरह ,उसी के लिए जीते लड़ते रहे.अदम की शायरी और जीवन में कथनी-करनी का अंतर जरा भी नहीं रहा. लोक और उसके संघर्षों के साथ जीते हुए लिखने का ये गुण ही अदम को कबीर की दबंगता,नजीर की लोक-चेतना और दुष्यंत कुमार का सहज आम जन सुलभ विश्वसनीय अंदाज़ देता है.उनकी गज़ल लोक से निकले क्रांति गीत हैं.जिसमे वे अदीबों,नेताओं,बुद्धिजीवियों,शोषकों पर तो करारा प्रहार करते ही हैं गज़ल में आम प्रचलित इश्को-माशूक के अफसानों को भी भूख की खुरदुरी जमीन पर नकार देते हैं-"गार्न रोटी की महक पागल बनाती है मुझे,पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करूँ."
आज अदम हमारे बीच नहीं रहे,जिस गरीबी और शोषण के विरूद्ध वे सारा जीवन लड़ते-बौलते रहे वही उनके जीवन के अंत समय उनकी त्रासद नियति के रूप में उनके साथ रही और उन्हें ले भी गयी.हम सब ,तथाकथित संवेदनशील.बुद्धिजीवी वर्ग न कुछ कर पाए न वो सरकार जिसके देश के लिए उनकी गज़लें विरासत हैं.किन्तु अदम को इस स्थिति का आभास था तभी तो वो एक जगह लिखते हैं.-"चाँद है जैरे कदम,सूरज खिलौना हो गया,हाँ,मगर इस देश में किरदार बोना हो गया."
आज हमारे बीच वो आवाज़ नहीं रही किन्तु उनकी कलम से निकली गज़ल रुपी चिंगारी आज भी हमारे बीच है जो हमें याद दिलाती रहेगी-
"जनता के पास एक ही चारा है बगावत,ये बात कह रहा हूँ मैं होशोहवास में."