मित्रो,आज एक कहानी.मैंने नहीं लिखी है,कहीं पढ़ी थी आज के हालात में बहुत याद आ रही है सो आपसे साझा कर रही हूँ.-
किसी समय,किसी गाँव में एक ठाकुर सा थे,खानदानी ठाकुर.रोबीला सरापा.तुर्रेदार पाग, बाँकडली मूंछें,अकड में अमचूर.उनके सामने 'ते' से 'रे' कहना तो बड़ी बात थी मजाल जो कोई आँख उठा के भी देख ले.तो एक दिन ठाकुर सा के मन में लहर उठी और वो घोड़े की सवारी पर विराजमान हो के भ्रमण के लिए निकल पड़े.संध्या का समय,नदी का किनारा,ठंडी बयार सब कुछ बड़ा सुहावना ठाठ..लेकिन अब घोड़े जी को नहीं जंचा तो नहीं जंचा,उन्होंने पैंतरा बदला और ठकुर सा उनकी पीठ से कूद कर नदी में जा बिराजे.अब नदी ज्यादा गहरी नहीं थी पर जिसको तैरना न आए उसके लिए तो नाला भी समंदर है सो ठाकुर सा भी बहने लगे.
तकदीर की बात उसी समय उधर से एक बंजारा दम्पति भी गुजर रहे थे बन्जारण की निगाह गोते खाते ठाकुर सा पर पड़ी और वो जान लगा के चिल्लाई-"अरे काल्या का दादा,भाग्यो जा,ठाकरियो डूब्यो."
अब ठाकुर सा को इतनी बदतमीजी सहन हो? वो डूबते उतरते गुस्से में दहाड़े--ऐ घीन्स्या,समझा ले तेरी लुगाई को.इसकी इतनी जुर्रत कि हमारे लिए ऐसे बात करे."
ठाकुर सा की बात सुनते ही नदी में कूदने को तत्पर बंजारा ठिठक कर जहाँ था वहीँ रुक गया और हाथ जोड़,गर्दन झुकाए दीनता से बोल-"खम्मा घनी सरकार.इस गवाँर में धेले भर की अक्कल होती तो मेरे साथ जंगल-जंगल ऐसे भटकती क्या.आप सा इस मूरख की बात पर ध्यान ही मत दो.आप तो बह पधारो हुकुम."
दोस्तो,कहानी खतम.मैंने सुना दी अब आप अटकल लगाइए कि इस कहानी में देश कौन है,जनता कौन,....कौन और ....कौन....?
जय हो.
Monday, June 6, 2011
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आप तो बह पधारो हुकुम." waah..!
ReplyDeleteशुक्रिया कमल जी.
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