संकेत मिलन का...
“ओ किन्नी, किन्नी, किन्नी... लुक
स्वीटहार्ट! मैंने तुम्हे खोज ही लिया. कैसे-कैसे, किस-किस से नहीं पूछा तुम्हारे लिए.
सोशल साईट पर गई, युनिवर्सिटी खंगाली... पर फाइनली मैंने तुम्हे ढूंढ लिया. ओ बेबी!
आयम सो हैप्पी. पच्चीस साल... बहुत लम्बा अरसा बिताया न हमने एक दूसरे के बगैर. ओ
किन्नी, आई मिस्ड यू अ लॉट.”
जया बेहिसाब खुश है, न उसे सामने बैठी किरण
की बड़ी-बड़ी आँखों के आँसू दिख रहे हैं न उसका दुख छू रहा है. वो अपने हिस्से के
आँसू घर पर बहा आई है, बरसों पहले बिछुड़ी दोस्त के मिलने की ख़ुशी के भी और और उसके
पति राजीव की असमय मौत के समाचार से मिले दुख के भी. अब किरण के बख्तरबंद जैसे घर की
बैठक में बैठी जया बस जॉय है.
पच्चीस साल पहले की चिड़िया सी चहकती जॉय, जो
अपनी पक्की सहेली किन्नी के पास बैठी है. उम्र का सारा प्रोढ़ अन्तराल इस समय कहीं
छुप गया है, न वो दो बच्चों की माँ, एक अधेड़ बैंक अफसर, न किरण एक अधेड़ प्रोफेसर.
किरण की नितम्बों तक लहराती दो चोटियाँ अब नहीं है पर जया को दिख रही है. उसकी कानों
को छूती आँखें उम्र के गढ़े में चली गई है ये भी जया को कहाँ दिख रहा है, उसे बस अपनी
मृगनयनी किन्नी दिख रही है,
बीस
साल की किन्नी यानि किरण... वो कोलेज के दिन, वो मस्ती के, जूनून के, पागलपन के
दिन... मस्ती जया की और जूनून किरण का. सारे कॉलेज में चर्चित थी उनकी दोस्ती
“किन्नी,
सुनील और सुबोध भी बहुत याद करते हैं तुम्हें, पर किसी को तुम्हारी खबर ही नहीं
थी. बाबू जी चले गए, पर माँ तुम्हें अब भी बहुत याद करती है. राजीव के जाने का सुन
के बहुत दुखी हो रही थीं, मुझे तुम्हे अपने साथ लेके आने को कहा है. जानती हो
सुनील की जुड़वाँ बेटियों की शक्ल ऐन मुझ पर गई है. तुम देखोगी तो हैरानी में पड़
जाओगी कि ये जुड़वाँ जॉय कहाँ से आ गई.” जया अपनी बातों में बहे जा रही है, उसे
किरण की लाल आँखों और मुरझाए चेहरे का बदलता तेवर नहीं दिखाई दिया.
“एक बात पूछूँ किन्नी! जब बीस सालों से तुम
इस शहर में आ गई हो, यहीं पढ़ाती हो तो फिर तुम कभी माँ के घर क्यों नहीं गई. क्या
कभी मुझसे मिलने का मन नहीं किया तुम्हारा? न कभी पूछा कि कैसी हो, न कभी बताया कि
कैसे गुजारा वो समय अपनी बेस्ट फ्रेंड के बिना. एक बार भी याद नहीं किया ....”
“नहीं चाहती थी मैं तुमसे मिलना.....” अचानक
किरण की धीमे लेकिन तीखे खुरचते सुर में आई रेगमाल सी आवाज और बात की रगड़ ने जया
के उत्साह को छील दिया.
“किन्नी...” जया की आवाज इस औचक धक्के से लड़खड़ा
के बैठ गई.
“हाँ, मैं नहीं
चाहती थी तुम से मिलना. मुझ पर जो बीती, जैसी गुजरी वो सारी दुनिया ने देखी-जानी
पर तुम वो सब देखो जानो, ये मैं नहीं चाहती थी... मैं नहीं चाहती थी अब भी तुमसे
मिलना, पर...” किरण के चेहरे का धुआँ सारे कमरे में भर गया है, जया की आँख और गले
में किरकिराहट होने लगी,
“किरण..” जया धुएँ
की घुटन से बोझिल फेफड़ों में बमुश्किल बुदबुदाई.”
“बोलने दो मुझे आज
जया. सत्रह साल की उम्र से आज तक कोई दिन ऐसा नहीं रहा जब तुम ने मुझे दुखी नहीं
किया हो. तुम्हारी शादी के बाद सोचा अब शांति से जीवन गुजरेगा, पर नहीं... फिर
सोचा मेरी शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा, पर नहीं हुआ... सोचा अपना बच्चा मुझे सब
भुला देगा, पर मेरा मन कुछ नहीं भुला. यहाँ तक कि राजीव की मौत के बाद भी ये क्रूर
बात मेरे मन में उठी थी कि शायद इस दुख, अकेले जीने के झंझट और छोटे बच्चे के पालन-पोषण
में मैं सब भूल जाउंगी, पर...
क्यों आई हो मेरी जिन्दगी में दोबारा? चली
जाओ... प्लीज गो... प्लीज जया, लीव मी. फॉर गॉड सेक... लीव मी अलोन ब्लडी हेल....”
किरण की आवाज़ का रेगमाल तीखी किरचों के रूप में घर में उड़ता फिर रहा है, जिस के कुछ
टुकड़े जा कर पास के कमरे में पढ़ रहे पार्थ, किरण के बेटे, के कान में चुभ गए हैं.
“क्या हुआ मॉम? प्लीज
मॉम... बी काम, मासी क्या हुआ मम्मा को.” हाँफती-काँपती किरण के कंधों को सहलाता
पार्थ शायद ये सब पहली बार नहीं देख रहा. “मॉम, क्या हो गया, आप जया मासी से लड़
रहे हो? जया मासी से... जिन्हें आप रोज याद करते थे और जिन्हें याद कर के आप रोते थे??
व्हाट्ज़ द प्रोब्लम मासी?” पार्थ जया से पूछ रहा है शायद.
लेकिन जया के कानों में वो भम्भीरी डोल रही है जो होली के आसपास कॉलेज के
पिछले मैदान के कनेरों के बीच डोलती रहती थी. हूऊऊऊऊ...शूऊऊऊ....
हुनूऊऊऊऊऊ.
“सुन किन्नी, ये हवा चुड़ैल
की सी नहीं चीखती?’’ जया
कहती और किरण हँसती “चल पूछें, शायद इसके बॉयफ्रेंड से झगड़ा हुआ हो
इसका.”
‘‘तो
देख न जरा, इस सूखी बावड़ी में गिर के मर तो नहीं जाएगी ये. गिरे
तो पकड़ लेना ओके.’’
‘’मैं क्यों रोकूँ! मैंने रोका और उसने मुझे पकड़ लिया तो..’’ किरण
को बावड़ी के भीतर जाने से हमेशा डर लगता था, फागुन में बवंडर
बन कर चकफेरी खाती, चुड़ैल सी चीखती, हवा की इस आवाज़ से भी.
और आज वही किरण... लेकिन ये आवाज़ यहाँ से उठ कर बावड़ी में क्यों उतर गई...
किरण तो बावड़ी देखते ही... पर ये तो बावड़ी में उतरती जा रही है और आधी सदी से
प्यासी पड़ी इस बावड़ी में पानी कहाँ से उतर आया... और ये बावड़ी यहाँ इस कमरे में
क्यों हिलोरें खा रही है...
“कुछ नहीं, मैं ठीक हूँ. तुम जाओ, और बिंदा से
कह दो हमें कॉफ़ी दे जाएगी.” किरण की आवाज़ बावड़ी से मुड कर पार्थ के पास लौट आई है.
और जया के कंधे पर हाथ धर उसे भी मोड़ लाई.
“श्योर, आर यू ओके
न, सफोकेशन तो नहीं लग रहा, पम्प की जरूरत हो तो निकाल के दे जाऊं?” इक्कीस साल का
पार्थ माँ का डॉक्टर है, शायद बरसों से.
“कॉफ़ी ठंडी हो रही
है जॉय.” अब किरण की आवाज़ भी सामान्य है और आँखें भी. और उसने जया को पुराने दिनों
के सम्बोधन से पुकारा है, वही दिन जब किन्नी खीजती थी “जॉय.. कॉफ़ी ठंडी हो जाएगी,
तू कॉफ़ी को भूल जाती हैं या कॉफ़ी तुझे?”
“हम्म...! हां
कॉफ़ी....पीती हूँ न... चल” जया ने कॉफ़ी पी, कुछ खाया भी शायद और इस के बाद किरण
एकदम ठीक-ठाक रही, घर-परिवार की बहुत सी बातें उससे पूछी, अपनी बताई. कुछ बातें पुराने
दिनों की भी की, पार्थ से कह के अपने मोबाइल में दो फोटो भी लिए दोनों के, लेकिन
ये सब नादान किन्नी ने नहीं अधेड़ किरण ने किया. पुडिंग के कम मीठे की सफाई देती हुई
भी वही किरण है जो पुराने एल्बम में उसकी चोटी खींचती हुई तस्वीर दिखाती किरण है. व्यावहारिक,
शांत और अपने आपे में सजग किरण.
लेकिन विदा के समय अपने बख्तरबन्द घर के विशालकाय
फाटक पर फिर से वही किन्नी खड़ी है, नितम्ब-चुम्बित चोटियाँ और कर्णचुम्बित आँखों
में जॉय का जूनून लिए “देख जॉय, कल तू आ रही है, सारा दिन यहीं रहने के लिए. मुझे
कुछ नहीं सुनना है. हम दोनों गप्पे लगाएँगे पुराने फोटो देखेंगे. फिर शाम को अपनी
पुरानी जगहों पर भी चलेंगे. नहीं-वहीं कुछ नहीं... मैंने बोल दिया न बस.”
“सुन जॉय... सॉरी” कार का दरवाज़ा बंद करते हुए
आखिरी शब्द किरण ने इतने धीरे से कहा जैसे एक साँस आई हो. या शायद नहीं ही कहा हो,
एक साँस ही ली हो. उस के घर के लोह-कपाट के आरपार कुछ भी तो नहीं दीखता.
किरण की सारी कोशिशों के बाद भी जया अपनी
उदासी और असमंजस को वहां छोड़ कर नहीं आ सकी, साथ ही ले आई, लेकिन बस घर के बाहर तक
ही. दरवाजे से ही सदा और नीरा की छापामार हँसी के हमलों से सब कुछ धराशायी हो गया.
सुबोध की जुड़वाँ बेटियाँ उससे मोह की तरह लिपट गईं. फिर उनके सो जाने तक घर में
कोई गम्भीर बात न होती है, न कोई करना चाहता है.
“बुई, आपकी फ्रेंड ने आपको क्या खिलाया?”
“अरे, बुई ने वहाँ चाकलेट केक खाया और आइस्क्रीम और पिज़्ज़ा, है न बुई?” “नो, बुई
ने बर्गर खाया था, है न बुई?” सदा और नीरा की बहस चलती रहती अगर कोकिला सुबह के
स्कूल का वास्ता देकर उन्हें सुलाने न ले जाती.
बच्चियां चली गई तो माँ शुरू हो गई-
“कैसी है किरण, उसका बेटा तो बड़ा हो गया होगा, स्याणा-समझदार है कि नहीं. उसके
भाई-भाभी सम्भालते हैं कि नहीं?” माँ के सवाल अंतहीन लेकिन सीधे सरल, एक बूढी माँ
के सवाल हैं जिनसे निपटना मुश्किल नहीं होता. और सच में जल्दी ही माँ के सवाल खरखराहट
में बदल कर सो गए लेकिन जया की नींदे उलझनों के गलियारों में जवाब मांगती जागती
रही. तफ्शीश के लिए यादों ने पच्चीस साल पुराने दिनों की पेशी लगा दी. और ये दिन
अपने साथ एक किले और दो लडकियों को गवाह बना के लाए हैं...
... विशाल पुराना किला, शहर का सरकारी कॉलेज,
जिसमें ये लड़कियाँ पढ़ती हैं... किले के बड़े-बड़े कमरों में बैठ कर नोट्स लिखती, उसकी
बोसीदा दीवारों के साए में बैठी बतियाती, उसके बड़े-बड़े दालानों में घूमती, केम्पस
के भीतर बनी बावडी की जगत पर बैठ के गाती, बावडी पर झुके नीम के पेड़ पर डले झूले
पर पींगे भरती और बावडी में झांक कर डरती ये लडकियाँ सामान्य लड़कियों जैसी होने की
गवाही दे रही हैं. आंख, नाक, कान, दिमाग, व्यवहार, हँसना-रोना, पढना सब सामान्य.
‘लेकिन अंतर तो था, जया फक्कड थी तो किरण हर
बात में कितनी ज्यादा मितभाषी और गम्भीर थी.’ स्मृतियाँ अपने लाए हुए चिट्ठे खोल
रही हैं. ‘जया मस्तराम थी और किरण कितनी संवेदनशील.’
‘लेकिन ये भी तो अतिसामान्य ही हुआ न, सभी दोस्त
ऐसे होते हैं.’ जया का उमरों पका वर्तमान ऑब्जेक्शन ओवररूल कर रहा है.
‘पर वो जूनून...?’ यादों ने एक छोटा सा तर्क
सरकाया.
‘तो क्या, वो भी सबका होता है, किसी का कम
किसी का ज्यादा. उस पगली उम्र की पगली बातें सब दोस्तियों पर लागू होती है, तुम
लोगों की दोस्ती भी कोई अनोखी थी न नवादा.’ जया का विवेक ज्यादा तार्किक है.
‘लेकिन तुम उस से
ज्यादा सुंदर थी और इस बात का उसे सदा मलाल रहा.’ यादों ने तुरुप का पत्ता फैंका
और और सयानापन लडखडा के धम से बैठ गया... उसी ऊँचे चौंतरे वाले मन्दिर की मुंडेर
पर, जहाँ बैठ कर जामुन खाते हुए किन्नी को ऐसा ही दौरा पड़ा था.
“हाय किन्नी! देख तो तेरे ओंठ कैसे
नीले-नीले हो गए. तेरे मूँगिया चेहरे पर नीलम से ओंठ, हाय मेरी जान...” जया की
हँसी कासनी थी.
“चुड़ैल लग रही हूँ मैं, जानती हूँ मैं,
तुम न कहती तब भी जानती हूँ थी मैं, समझी तुम.” एक अजनबी आवाज... चीख दबाने के लिए
गले में जबरन घोंटी जाती वो आवाज किरण के ओंठों से आ रही थी या जामुन के पेड़ की
सबसे उपरी टहनी से, जहाँ अभी कुछ ही देर पहले उनके खिलंदड़े किशोर मन ने एक चुड़ैल
लटकाई थी.
“जानती हूँ मैं काली
हूँ, मेरे ओंठ भी सांवले है... हाँ नहीं हूँ मैं तुम्हारे तरह सुंदर, तो फिर क्यों
तंग करती हो मुझे, चली जाओ मुझे छोड़ कर, इतने बड़े कॉलेज में ये भद्दी लड़की ही
क्यों मिली तुम्हें... जाओ, मैं भी तुम्हारे इस मिस इण्डिया रूप से मुक्ति चाहती
हूँ... प्लीज गो.” किरण की आवाज पेड़ की फुनगी से उतर कर मन्दिर के चबूतरे पर आ गई
थी और उसने किरण के ओठों पर ही नहीं आँखों और आवाज़ पर भी कब्जा कर लिया था...सांप
की ताज़ा उतरी केंचुल सी नीली और गीली आवाज जिसके बोझ से किरण खुद दोहरी हो रही थी.
“चलें
जॉय” थोड़ी देर बाद जब चुड़ैल अपनी नीली केंचुल लेकर शायद बावडी में उतर गई और वो
दोनों अकेली रह गईं तब किरण ही बोली थी. “डरपोक जॉय, रही न टिपिकल लड़की! अरे
बुद्धू, रोती क्यों है, मजाक करती है तो सहना भी सीख, सेन्स ऑफ़ ह्यूमर कहाँ गया
तेरा.” उस घड़ी किरण एकदम सामान्य थी.
जया के आँसू पोंछते हुए किरण ने उसकी पलकें
चूमी और जया एक बार फिर काँप गई. ओंठों की नीली केंचुल मेरी पलकों पर तो नहीं
चिपकी होगी न. उसके हाथों में एक हल्की सी
जुम्बिश हुई लेकिन पलकों से दूर ही रहे. और किरण ने धीरे से उसकी पलकों पर फूंक
मारी थी, जैसे कोई मंतर फूंका हो. “ले, मैंने उड़ा दिया चुड़ैल का जहर, कुछ नहीं
होगा तेरी गुलाबी पलकों को.” हंस पड़ी थी किरण, जैसे नादान जॉय की चोरी पकड ली हो.
“किन्नी,
कल क्या हो गया था तुझे?” जया ने पूछा भी तो था उससे.
“कुछ
नहीं, मैं तो बस उस चुड़ैल से तेरा परिचय करा रही थी.” किन्नी ने हंसते हुए अपनी
बड़ी-बड़ी आँखे चुरा ली थी. और फिर वो दिन यादों के झुरमुट में कहीं बिछुड़ गया था जो
आज सामने खड़ा है.
और जया की बंद पलकों
में किरण की आँखें खुल गई. वो काजल भरी बड़ी-बड़ी आँखें कितनी वाचाल और कैसी चुप
होती थी, एक साथ ही. जैसे सूने आसमान में खूब ऊँचे पर उडती एक अकेली पतंग... लहर,
मुरकियाँ, ठुमकी, पेंच सब कुछ लेकिन दूर, अपने एकांत में डोलती. और ये बावड़ी, ये
तो कभी याद नहीं की मैंने... आज किरण के साथ ही ये भी क्यों उमड़ रही है यादों
में... और ये तो तब भी सूखी थी न, अब कैसे इतना पानी भर गया इसमें.
“संकेत मिलन का भूल न जाना मेरा प्यार न
बिसराना...” बंद खिड़की के बाहर कोई गाता हुआ जा रहा है. ये गीत.. ये गीत तो किरण
गाती थी.
जया ने घबरा कर करवट बदली
“सुन जॉय, बावडी पर चलें?” किरण की आँखें
फुसफुसाई थी और जया की रीढ़ की हड्डी में जाने क्या गुजर गया सर्र से. खिड़की के
बाहर कोई मत्त सांड चिंघाड़ रहा था और उसी समय जोरदार हवा ने भी पत्तों की किलकारी
भरी और बंद खिडकियों पर जोरदार दस्तक दी. जया को फिर से कॉलेज के कनेरों के बीच
भटकती हवा याद आ गई. उस ने ने आँखे खोल कर माँ की तरफ करवट ले ली.
जॉय!
चल, अपने कॉलेज चलें.” आइसक्रीम खाती किरण अचानक किन्नी बन गई थी.
“कॉलेज!” जया की रीढ़ की हड्डी में बीती रात
सरसरा के गुजर गई.
“हाँ,
चलते हैं न, मज़ा आएगा. और वहाँ बावडी की तलछट में अपनी कुछ यादें जमी पड़ी हैं, सूख
कर पपडाए उस के पहले उन्हें भी बीन लाते हैं न.”
“तू गई थी क्या उधर?” जया जरा हैरान है.
“मैं वहां अक्सर चली जाती हूँ, अपनी यादों को
सम्भालने. चल ना यार... जानती है वो जामुन वाली चुड़ैल भी मिस करती है तुझे” किरण
हँसी और जया की आँखों में फिर बीती रात उतर आई, किन्नी के चेहरे पर वो ही तो आँखे
थी जो उसके सिरहाने के पास हँस रही थी.
“पार्थ...” जया ने जाने क्यों किरण के बेटे को
पुकारा.
“वो नहीं है, और तू डर मत, चुड़ैल नही आएगी
यहाँ.” किरण हँसी तो जया भी हँस पडी. “एक बात पूछूँ किन्नी?”
“राजीव को क्या हुआ था, यही पूछेगी न?” किरण
मनोविज्ञान में पारंगत है, शुरू से ही. “हाँ”
“कुछ नहीं, एक रोज स्कूटर पर घर से निकले और
एम्बुलेंस में लौट कर आए...”
“ओ! सॉरी” जया ने अपनी नम आँखे मूँद लीं.
“यू शुड” किरण की आवाज पलंग के नीचे से गुजर
गए कीड़े की तरह सरसराई और कपबोर्ड के पीछे छुप गई. जया ने बेचैन हो कर आँखे खोल ली.
किरण की आँखें फिर बदलने लगी है.
“एक्सीडेंट?”
“हाँ, मुठभेड़ तो हुई थी... अच्छा सुन हमारे
कॉलेज के दिनों में तुम वो प्लेनचिट किया करती थी न आत्मा बुलाने के लिए. आज भी कर न, चल हम राजीव
की आत्मा बुलाते हैं.” किरण की आवाज में जाने कैसी किलक और उछाह आ गया. जया ने
चौंक के देखा, किरण का चेहरा चमक रहा है और सुर्ख है.
“वो सब नादान उमर की
नादान बातें थी किन्नी, कोई आत्मा-वात्मा नहीं होती. तू भी न बचपना करती है.” जया
ने अपनी आवाज के डर को भीतर ही दबा लिया.
“जॉय चल न... प्लीज
जॉय करते हैं न. देख अभी पार्थ भी घर नहीं है और आज अमावस भी है. मैंने बहुत ट्राय
किया पर मेरे बुलाने से नहीं आता वो, लेकिन तू कोशिश करेगी तो जरुर आ जाएगा.” किरण
प्रगल्भ होने लगी है.
“जानती है जॉय, तेरी
बड़ी तारीफ करता था वो.” किरण की बड़ी-बड़ी आँखों और ओंठ दोनों में जामुनी सी तरलता आ
गई. बाहर बूंदें गिरनी शुरू हो गई थी और जया के कंठ में नागफनी उग रहे हैं.
“सुन किन्नी, रात होने लगी है, मैं...” लेकिन खिड़की
के शीशे से बतियाती किरण जया को सुन ही नहीं रही.
“जया बुलाएगी तो तुम आओगे...यही कहा था ना
तुमने मुझसे? लो! आ गई जया, अब आओ... बताओ, क्यों छोड़ गए मुझे. बोलो, और बताओ न
जया को कि ये तुम्हे कितना अपील करती है... बोलो राजीव, आ के बोलो एक बार.” किरण
की आवाज कर्कश हो कर उलझ गई है, शायद खिड़की के बाहर कौंधती बिजली से या खिड़की के
शीशे पर पड़ती छायाओं से.
“बड़ी अच्छी लगती थी न तुम्हे जया... मिलना
चाहते थे न तुम इस से... तो बात करो अब इससे. इसे बता दो न कि ये कितनी प्यारी
है...क्या कहा था इसका तुमने फोटो देख के... हाँ, सलोनी.... तो बात करो न सलोनी जया
से .... मुझे नहीं तो इसे तो बता दो ... राजीव... प्लीज बोलो.” किरण की आवाज़ फिर
उसी बावडी में उतर गई है... “संकेत मिलन का भूल न जाना मेरा प्यार न बिसराना...”
किरण के सूखे अधेड़ गले में वही गीत पछाड़ खा रहा है जो वो दोनों नीम के पेड़ पर डले
झूले पर पींग भरती हुई गाती थीं.
“किरण, कल रात तुम...”
लेकिन बातों में उलझी किरण जया को नहीं सुन रही.
“लो ये प्लेनचिट... जॉय!
बुलाओ राजीव को, वो मिलना चाहता है तुमसे.” किरण ने जाने किस दराज से प्लेनचिट बोर्ड
निकाल लिया है. किरण की आँखों में बाहर कौंधती बिजली की कासनी सी लपट भरी है. “जया
डरती है राजीव. अरे! ये नहीं बुलाती तो तुम ही आ जाओ, जया तो है ही न यहाँ....जो
भी कहना है कह दो इससे.”
“कैसी हो जया, हम तो पहली बार ही मिले हैं न... मुझे
पहचाना मैं एडवोकेट राजीव कामथ... तुम्हारी दोस्त का पति” अचानक किरण की आवाज का
रंग जामुनी से कत्थई हो गया, सघन, गाढ़ा, भारी लेकिन खुशमिजाज़. उसकी आवाज़ ही नहीं
आँखें और पकड़ भी भारी हो रही है, बादलों जैसी... बरसने और बहने को मचलती सी, बाहर
बूँदें ट्रांस में आ गई हैं.
“सुनो जया, तुम बहुत सुंदर हो. किरण सच कहती
थी, यू आर सच ए क्लासिक ब्यूटी. केन आई... केन आई... केन आई,” राजीव जया को छूना
चाहता है... सामने की दीवार पर किरण और राजीव गड्डमड्ड हो रहे हैं. जया इन छायाओं
से बाहर आना चाहती है लेकिन बाहर बादल, बिजली, बारिश और वो पीली बिल्ली है जो
गुलतोड़ी की जड़ों में छुपी आँखे चमका रही है.
ऐसी
ही एक बिल्ली उस बावडी में भी तो रहती थी. जया जोर से चीखना चाहती है... उसी समय
पार्थ की गाड़ी घर में घुसी, जया की चीख ने गले में ही दम तोड़ दिया और बरसती हवाएँ
किरण की अस्थमा-दबी साँसों के बोझ से दब के घरघरा उठी.
जया, तुम आओगी न सुबह....देखो एक बार आना प्लीज.”
पार्थ के कमरे में आने और अस्थमा में घुट जाने के बीच किरण के शब्द खूब साफ़ हैं.
रतजगों की आँखों में नींद कहाँ होती है....
और इस रात तो किरण और जया दोनों सोना भी नहीं चाहती थी. पच्चीस बरसों से बिछड़ी
मीताएँ बतिया रही थी और बरसातें सुन रही थी. बाहर पत्तों से टपकती बूंदें और किरण
मिल कर मीठी जुगलबंदी छेड़े हैं ‘संकेत मिलन का भूल ना जाना... ’
“सुन
किन्नी! तेरा इतना मन है तो कल चलते हैं अपने रेंदेव्यू,” जया भी मौज में है. “अभी
तो खूब पानी भी आ गया होगा बावड़ी में.”
“हाँ जॉय, खूब पानी है, इतना कि तैर भी सकते
हैं.” किरण हँस पडी. करवट बदलती जया ने अपने माथे पर एक खठमिट्ठी साँस सूंघी, माँ शायद
नींद में कुछ बड़बड़ाई, बाहर बूंदों और पत्तों के उलझने की आवाजें भी तेज हो गई हैं.
और खठमिट्ठी साँस की महक के नशे में जया की
आँख मुंद गई. पर सिरहाने रखी वो आँखें जागती रही.
अगले दिन किरण सचमुच तैर रही थी.... बीस साल
पहले राजीव जहाँ तैरता मिला था उसी जगह... और अखबार में छलछलाती बावडी का पानी जया
के हाथों से चढ़ कर आँखों तक आ गया है.
परिचय-